दीपक गोस्वामी।
पत्रकारिता तब 'पक्ष'कारिता में बदल जाती है जब एक पत्रकार योगी सरकार द्वारा अखिलेश यादव को विमान यात्रा करने से रोकने को तो अलोकतांत्रिक ठहराता है, लेकिन जब वही काम बंगाल में ममता बनर्जी योगी आदित्यनाथ और शिवराज सिंह चौहान के साथ करती हैं, तब उसे जायज ठहराता है।
अभी-अभी ऐसे कई प्रगतिशील पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की फेसबुक वाल से होकर आ रहा हूं जो अखिलेश के समर्थन में आवाज बुलंद किए हुए हैं।
अच्छी बात है। अखिलेश का समर्थन होना चाहिए और योगी का विरोध भी।
लेकिन इन पत्रकारों या कहूं कि 'पक्षकारों' की नियत पर शक तब होता है जब आप इनका कुछ दिन पुराना इतिहास खंगालते हैं, जहां ये लोग ममता बनर्जी द्वारा शिवराज और योगी आदित्यनाथ के विमानों को बंगाल की धरती पर न उतरने देने को सही ठहरा रहे थे।
क्या वह अलोकतांत्रिक नहीं था? क्या वह तानाशाही रवैया नहीं था?
दोनों कृत्य एक समान रहे। बस अंतर इतना है कि एक कृत्य 'मोदी कैंप' ने किया तो दूसरा 'एंटी मोदी कैप' ने।
'मोदी कैंप' का कृत्य तो उन्हें अलोकतांत्रिक लगता है जबकि 'एंटी मोदी कैंप' का वही कृत्य लोकतांत्रिक कैसे हो सकता है?
अगर उनकी नजर में ममता बनर्जी ने तब जो किया था वो सही था, तो योगी ने आज जो किया उसे वे गलत ठहराने का नैतिक अधिकार खो देते हैं।
लेकिन यदि तब भी वे योगी को गलत और ममता को सही ठहराते हैं तो यह पत्रकारिता तो कतई नहीं है. अर्थात उक्त व्यक्ति पत्रकार नहीं, पक्षकार है और ऐसा करने वाला मीडिया संस्थान पत्रकारों का संस्थान नहीं, पक्षकारों का संस्थान है।
पत्रकार वही जो निष्पक्षता दिखाए।
और हां, इससे फिर साबित होता है कि वर्तमान भारतीय मीडिया केवल भाजपा की गोदी में नहीं खेल रहा, मीडिया का एक हिस्सा कांग्रेस या विपक्ष की गोदी में भी खेल रहा है।
फेसबुक वाल से।
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