राकेश कायस्थ।
दैनिक भास्कर बीजेपी के प्रचार के लिए खुलकर मैदान में आ गया। पत्रकारिता टॉपलेटस पहले से थी आखिरी अधोवस्त्र भी उतर गया। फिर भी अख़बार नवीस बिरादरी में प्रतिक्रिया वैसी नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए थी। सोशल मीडिया पर पांच-दस लोगों ने सवाल उठाये और फिर बात आई-गई हो गई। सोच रहा हूं कि आखिर जिद करके दुनिया बदलने का दावा करने वाला और इक्विटी मार्केट से अरबो रुपये उठाने वाला कोई मीडिया समूह इतना बेशर्म कैसे हो सकता है। फिर ये भी लगता है कि आखिर वो कौन सा दौर था, जब ये बेशर्मी नहीं थी? आखिर मुझे भी 20 साल हो गये है, यह सब बहुत करीब से देखते हुए। पेशे के साथ बेशर्म बेईमानी हर दौर में रही है, फर्क सिर्फ इतना है कि ये बेईमानी अब संस्थागत होने के साथ घोषित भी हो गई है। मीडिया की विश्वसनीयता जुड़े अपने अनगिनत अनुभवों में दो का जिक्र करना चाहूंगा, पत्रकार के तौर पर नहीं एक प्रेक्षक और पाठक के तौर पर भी।
पहला वाकया 2010 का है। मैं अपने होम टाउन रांची लंबे अरसे बाद गया था। ये वो शहर है, जिसके बारे में ये कहा जाता है कि यहां अख़बारों के बीच उसी तरह की गलाकाट प्रतियोगिता है, जैसी दिल्ली में न्यूज़ चैनलों के बीच है। रांची में कदम रखते ही एक सनसनीखेज ख़बर ने मेरा स्वागत किया। शहर के व्यस्तम इलाके में बैंक के भीतर मामूली नोंक-झोंक पर सिक्यूरिटी गार्ड ने गोली दाग दी। एक ग्राहक बाल-बाल बचा। मैने अगले दिन के अख़बार देखे। कहीं सिंगल कॉलम तक की भी ख़बर नहीं थी। मैने रांची के मशहूर सरोकारी और क्रांतिकारी अख़बार में काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार से पूछा तो उन्होने हंसकर जवाब दिया– शहर के किसी अख़बार में हिम्मत नहीं है कि उस बैंक से जुड़ी एक लाइन की भी कोई निगेटिव ख़बर छाप दे। विज्ञापन इसी शर्त पर दिये जाते हैं।
यह तो क्षेत्रीय पत्रकारिता की बात है। अब राष्ट्रीय मीडिया का हाल देखिये। वाकया पांच साल पुराना है। मेरे एक परिचित परिवार में एक बेहद दुखद घटना हुई। एक व्यक्ति जो बहुत बड़ी फर्टिलाइज़र कंपनी में वरिष्ठ पद पर थे, कंपनी के किसी प्लांट की निगरानी के लिए गजरौला गये थे। वहां गैस रिसाव की ख़बर थी। प्लांट में दाखिल होते ही वे बेहोश होकर गिर पड़े। कंपनी के कुछ लोग उन्हे उसी हालत में लेकर दिल्ली आये। परिवार वालों को इत्तला दी गई कि तबियत खराब होने की वजह से उन्हे अस्पताल में भर्ती कराया गया है। अस्पताल ने करीब 24 घंटे बाद उन्हे मृत घोषित किया जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ये पता चला कि दो दिन पहले ही उनकी मौत हो चुकी थी। पुलिस ने भी मामले में कोई कार्रवाई नहीं की।
मैं भले ही मुख्य धारा पत्रकारिता छोड़ चुका था, लेकिन दिल्ली-एनसीआर के हर मीडिया समूह में मेरे दोस्त थे। मैने आनन-फानन सबको फोन किया। सबने एक स्वर में कहा कि बहुत बड़ी ख़बर है, ठीक से कवर करवाएंगे। सुबह से शाम हो गई। कोई फॉलोअप नहीं मिला। एकाध संपादक मित्रों ने कुछ बदले हुए टोन में कहा है– देखते हैं और बाकी ने फोन उठाना ही बंद कर दिया। माजरा कुछ समझ में नहीं आया। फिर एक जगह के ब्यूरो चीफ ने कहा- भाई साहब मीडिया से कोई उम्मीद मत रखिये। आपको मालूम है जहां हादसा हुआ है वो फैक्ट्री किसकी है? मैने कहा– नहीं मालूम। उन्होने बताया कि देश के सबसे बड़े अख़बार समूहों में एक की मालकिन के पतिदेव उस फर्टिलाइज़र फैक्ट्री के सर्वे-सर्वा हैं। सबकुछ मैनेज किया जा चुका है। संपादकों को मालिकों की तरफ से सख्त हिदायत है– फर्टिलाइज़र प्लांट में गैस रिसाव से हुई मौत की कोई ख़बर ना छापी जाये। सनसनीखेज ख़बरें चलाने में माहिर नोएडा के एक राष्ट्रीय चैनल को छोड़कर किसी ने उस ख़बर को हाथ तक नहीं लगाया।
मुझे उस दिन एहसास हुआ कि खुद को ताक़तवर समझने वाले तुर्रम खां रिपोर्टर और सरोकारी संपादक एक संगठित तंत्र के हाथों के कितने छोटे मोहरे हैं। मुझे लगता है कि पत्रकारिता से जुड़े हर व्यक्ति के पास इस तरह के दो-चार अनुभव ज़रूर होंगे। आपको हर कदम पर लगता है कि पूरा तंत्र ही बिका हुआ है। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद देश के लोगो का जीवन स्तर बदला, ज़ाहिर है पत्रकारों की माली हालत भी सुधरी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्फोट के बाद पत्रकारिता को भी एक करियर ऑप्शन के रूप में देखा जाने लगा। एमबीएम और इंजीनियरिंग जैसी प्रोफेशनल डिग्री वाले बहुत से नौजवान मीडिया में आये। प्रिंट से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तरफ लोगो का पलायन बढ़ा तो अख़बारों में काम करने वालों की सैलरी भी बढ़ी। लेकिन इस फीलगुड के बीच किसी ने ये नहीं सोचा कि उदारीकरण के बाद से संस्थानों की क्रमिक हत्या का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसका पहला शिकार मीडिया ही है।
एक इंस्टीट्यूशन के तौर पर मीडिया अब इतना डिसक्रेडिट हो चुका है कि उसके पास बाकी लोगों पर सवाल उठाने की वैधता ही नहीं रही। आखिर हम किस आधार पर कह सकते हैं कि मीडिया के पास कोई मोरल हाई ग्राउंड बचा है? इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में कहा– अच्छी पत्रकारिता की आवाज़ मद्धिम नहीं हुई है बल्कि घटिया पत्रकारिता ज्यादा शोर कर रही है। इस बयान पर तालियां खूब बजीं। लेकिन क्या ये सच है? सवाल हर उस व्यक्ति को अपने आप से पूछना चाहिए जो ये मानता है कि पत्रकारिता बचेगी तभी लोकतंत्र बचेगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मशहूर व्यंग्यकार हैं। उनका ये आलेख मीडिया विजिल से लिया गया है।
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