मनोज कुमार।
‘ठोंक दो’ पत्रकारिता का ध्येय वाक्य रहा है और आज मीडिया के दौर में ‘काम लगा दो’ ध्येय वाक्य बन चुका है। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता से टारगेटेड जर्नलिज्म का यह बदला हुआ स्वरूप हम देख रहे हैं। कदाचित पत्रकारिता से परे हटकर हम प्रोफेशन की तरफ आगे बढ़ चुके हैं जहां उद्देश्य तय है, ध्येय तो गुमनाम हो चुका है।
इस बदलाव का परिणाम है कि हम अपने ही देश मेें अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हम भूल जाते हैं कि पराधीन भारत में हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गोरे शासकों ने नहीं दी थी और उनसे जो बन पड़ा, वह हम पर नियंत्रण करने की कोशिश करते रहे लेकिन पत्रकारिता के हमारे पुरोधाओं ने उनकी परवाह किए बिना ‘ठोंकते’ रहे और वे बेबस रह गए।
आज ऐसा क्या हुआ कि हम संविधान में उल्लेखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बावजूद बेबस हैं? सवाल यह नहीं है कि हमें अभिव्यक्ति की आजादी है कि नहीं। सवाल यह है कि हमने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वच्छंदता मान लिया और उसका बेजा उपयोग करने लगे। जब स्वतंत्रता का अर्थ बदल कर स्वछंदता हो जाए तो यह स्थिति आनी ही है।
भारत में हिन्दी पत्रकारिता का उदयकाल 30 मई 1826 को माना जाता है। इस दिन साप्ताहिक पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन आरंभ हुआ था। इसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता देश के कोने कोने से समाचारपत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह वह समय था जब प्रकाशन व्यवसाय नहीं था। पत्रकारिता मिशन थी और यही मिशन ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता कहलाती थी। तब प्रकाशनों के समक्ष सर्वजन सुखाय, सर्वजनहिताय प्रमुख होता था। प्रकाशनों से आय अर्जित करना लक्ष्य नहीं था बल्कि तब घर फूंक तमाशा देखा जाता था। एक कमिटमेंट के साथ पत्रकारिता होती थी। यह परम्परा भारत के स्वाधीन होने के बाद भी बनी रही।
अब भारत की पत्रकारिता के समक्ष नव-भारत के निर्माण का लक्ष्य था। चुनौती यह थी कि अब अपने ही लोगों के खिलाफ लडऩा है। उनकी कमियां बतानी है और उन्हें सजग और सचेत करना है। यह जवाबदारी भी एक परम्परा के रूप में पूरी हो रही थी क्योंकि आजादी के जंग में जिन्होंने अपना सर्वस्व स्वाहा किया था, वह सोने की चिडिय़ा कहलाने वाले भारत को उसका गौरव, उसका अभिमान लौटाने के लिए बेताब थे। इस बात से भी इंकार नहीं कि उस दौर में प्रतिबद्ध पत्रकारों की फौज थी तो उनका सम्मान करने वाले राजनेताओं की संख्या भी बड़ी थी। दोनों के मध्य समझ और सामजंस्य से पत्रकारिता लगातार परवान चढ़ रही थी।
हैरानी की बात यह है कि तब पत्रकारिता को अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सत्ता और शासन से लडऩा नहीं पड़ा। पत्रकारिता को लिखने की पूर्ण स्वतंत्रता थी बल्कि कई बार तो ऐसी रिपोर्ट और लेखों पर सरकार और सत्ता की तरफ से हौसला बढ़ाया जाता था। दोनों पक्षों को यह पता था कि जो लिखा जा रहा है, वह लक्ष्यभेदी नहीं है बल्कि ध्येनिष्ठ है और समाज की शुचिता के लिए है।
यह वह समय था जब अखबार को समाज का दर्पण माना गया और सत्ता-शासकों ने पत्रकारिता को समाज का चौथा स्तंभ कहा। भारत में ही पत्रकारिता की इस महत्ता को समझा गया था क्योंकि भारत की ही पत्रकारिता ने अंंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए मजबूर किया और असंख्य भारतवासियों को शब्द से जगाने का कार्य किया। जो पत्रकारिता कल तक भारत का चौथा स्तंभ थी और आज क्या हुआ कि वह स्वयं की स्वतंत्रता के लिए बेबस हो गई है? क्या देश के तीन और स्तंभ ने भी कभी अपनी स्वतंत्रता के लिए गुहार लगायी है? तब जवाब ना में होगा और कुतर्क के तौर पर दलील दी जाएगी कि शेष तीन स्तंभ संवैधानिक हैं।
बात कुछ हद तक गलत नहीं है लेकिन पूरी तरह सही भी नहीं है क्योंकि जिस पत्रकारिता में राजसत्ता बदलने की ताकत हो, वह पत्रकारिता स्वयं की स्वतंत्रता को कायम ना रख पाए तो अनेक सवाल खड़े होते हैं। जैसा कि पहले ही कहा गया कि स्वतंत्रता और स्वछंदता में महीन सा अंतर होता है। स्वतंत्रता का अर्थ अनुशासन से है जबकि स्वच्छंदता का अर्थ अनुशासनहीनता से। कोई गुरेज नहीं कि हमने स्वतंत्रता का अर्थ ही बदल दिया है और स्वच्छंदता के लिए लड़ रहे हैं। यह स्थिति दुर्भाग्यजनक क्योंकि जो पत्रकारिता समाज का दर्पण हो, समाज आज उसे अपना चेहरा देखने के लिए कह रही है।
भारतीय पत्रकारिता के बीते तीन दशक के दौर को छोड़ दें तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर कोई सवाल नहीं उठा। उल्टे जब तब अवसर आया तो हर बार छपी खबरों का हवाला देकर प्रमाणित करने की कोशिश की गई। अखबारों का उल्लेख तो इस तरह होता है जिस तरह किसी धार्मिक ग्रंथ को साक्ष्य मानकर बोला जाता है। इतनी विश्वसनीयता समाज के दूसरे किसी सेक्टर पर कभी नहीं रहा। आज भी हम पत्रकारिता के संक्रमणकाल से गुजर रहे हैं और बार-बार पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगने के बाद भी भरोसा अभी पूरी तरह टूटा नहीं है। जब समाज का हम पर इतना भरोसा है तो फिर क्या कुछ हुआ कि हम बेबस हो गए हैं? इस बेबसी के बरक्स हमें आत्मचिंतन करना होगा। आखिर हमारी चूक कहां हुई और शायद कर रहे हैं।
पत्रकारिता से मीडिया में परिवर्तित हुआ यह परिदृश्य क्यों अविश्वसनीय हुआ, इसकी पड़ताल करना जरूरी लगता है। इस क्रम में सबसे पहले मुद्रित माध्यम की चर्चा करना जरूरी लगता है। भारत में पत्रकारिता का श्रीगणेश मुद्रित माध्यम से ही हुआ है, सो इसकी चर्चा पहले जरूरी है। पराधीन भारत से स्वतंत्र भारत तक मुद्रित माध्यमों के जरिये पत्रकारिता जीवित रही और वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही। अखबारों में नाम प्रकाशित होने का भी अपना गौरव और शर्म की बात होती थी। किसी अच्छे कार्यों के सिलसिले में किसी सत्ता-शासक या प्रतिष्ठित व्यक्ति का नाम का उल्लेख हो जाए तो उसके लिए शान की बात होती थी। वह गौरव का अनुभव करता था किन्तु यही नाम जब किसी ऐसे मामले में प्रकाशित हो जाए तो उसका सिर शर्म से झुक जाता था।
यही कारण है कि पत्रकारिता के तालिम के समय हमें यह सबक दिया गया कि किसी व्यक्ति की मानहानि को ध्यान में रखकर खबर लिखो। तुम्हारे सही या गलत लिखे को पढऩे वालों की तादाद सैकड़ों में होगी जिससे गलत लिख जाने पर उसकी मानहानि भी उसी स्तर की होगी किन्तु जब गलती पर भूल सुधार छपेगा तो संवैधानिक प्रक्रिया पूर्ण हो जाएगी किन्तु उसका खोया हुआ आत्मसम्मान किस तरह लौटा पाओगे? पत्रकारिता की यह जिम्मेदारी उसकी प्रतिष्ठा होती थी। पत्रकारिता पर भरोसे का यह एक बड़ा सबब था लेकिन आजादी के साल जैसे-जैसे गुजरते गए पत्रकारिता के स्थान पर पीत-पत्रकारिता ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी।
सही मायने में हम जिस टारगेटेड जर्नलिज्म की बात कर रहे हैं, उसकी नींव 70-80 के दशक में ही पड़ गयी थी। सत्ता-शासकों में पत्रकारिता के प्रति असहिष्णुता का पहला दृश्य आपातकाल के समय देखने को मिला। अराजक और तानाशाही का बेमिसाल दौर था जब पत्रकारिता पर नकेल डालने की स्वतंत्र भारत में पहली शुरूआत हुई थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने की जो हिमाकत अंग्रेज शासक भी नहीं कर पाये थे, वह मंजर हमने अपने ही आजाद मुल्क में देखा था। बावजूद इसके गर्व से कहा जा सकता है कि इस तानाशाही में भी पत्रकारिता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ना तो दुहाई दी और ना ही रिहाई की मांग की। आत्मस्वाभिमान के साथ पत्रकारिता के उस तेवर से सत्ता-शासन का परिचय कराया जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। अखबारों ने कोरे पन्ने छोड़ कर चेता दिया कि पत्रकारिता कोई पेशा नहीं, आत्मस्वाभिमान है।
हालांकि यही वह दौर है जब कुछ टूटे और सहमे से लोगों ने आपातकाल के दरम्यान सत्ता-शासन के समक्ष घुटने टेक दिए। पत्रकारिता का यह चरित्र सही मायने में पत्रकारिता का नहीं था बल्कि पत्र स्वामियों का था जो व्यापार करते थे और नफा कमाना जिनका एकमात्र लक्ष्य था। हालांकि इनकी संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी लेकिन पत्रकारिता की नींव हिलाने के लिए यह कम नहीं था। ऐसे वक्त पर हाशिये पर बैठे भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की टिप्पणी थी कि- सत्ता-शासन ने कहा झुको तो लेट गए और घुटनों के बल चलने लगे। आपातकाल के समाप्त होते ही पत्रकारिता दो दिशाओं में बंट गई थी। एक सत्ता-शासक का चारण बन चुका था तो दूसरा बड़ा वर्ग आत्मस्वाभिमान से वैसे ही खड़ा था।
इस बदलते समय में एकाएक प्रकाशनों की बाढ़ सी आ गई। सत्ता के निकट जाने का यह सबसे सहज और सुलभ रास्ता माना गया। सत्ता-शासकों को भी लुभाने लगा कि जिन्हें कल तक सिंगल कॉलम खबर में भी स्थान नहीं मिल पा रहा था, आज वे बैनर के हकदार हो गए हैं। सत्ता-शासन का यह लोभीवर्ग पत्रकारिता के उन नौसीखियों के लिए भी लाभ था कि अब उनके सीधे रिश्ते बन चले हैं। इस सब में दोनों पक्षों ने अपने-अपने लाभ का गणित देखा। जो लोग इस काम में जुटे हैं, उन्हें पत्रकारिता नहीं आती और जो राजनीति के पाये पर खड़े थे, वे आज सिरमौर बन गए हैं। इन सबमें पत्रकारिता का बड़ा नुकसान हुआ।
रही-सही कसर पत्रकारिता शिक्षण की संस्थाओं ने पूरी कर दी। हर साल बीए-एमए की तर्ज पर हर प्रदेश से पांच-दस हजार विद्यार्थी पत्रकारिता के मैदान में उतार दिए। किताबी ज्ञान से भरपूर हो सकते हैं लेकिन जमीनी ज्ञान नहीं होने के कारण बेरोजगारी से इनकी दोस्ती अटूट रही। हालांकि धक्के खाने के बाद ये भी उस रास्ते पर चल पड़े जहां से पत्रकारिता का पतन आरंभ हो रहा था।
इस नए दौर की मुद्रित पत्रकारिता का एक बड़ा संकट और है, पहले पत्रकार बनने की चाहत, फिर सम्पादक और मालिक बन जाने की जुगत में अनेक औचित्यहीन प्रकाशन आरंभ हो गए। निजी हित के लिए आरंभ हुए प्रकाशनों ने पर्यावरण को पूरी तरह नष्ट करने में अपनी भूमिका निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। एक पन्ने के प्रकाशन में औसतन एक पेड़ अपना जीवन खो देता है, ऐसे में इन प्रकाशनों पर सवालिया निशान लग रहे हैं। जिस तेजी से प्रकाशनों की संख्या में इजाफा हो रहा है, उससे यहां एक सवाल यह भी है कि प्रकाशन क्यों और किसके लिए? बिना औचित्य के इन प्रकाशनों से केवल और केवल पर्यावरण का नुकसान हो रहा है। हाल में केन्द्र सरकार द्वारा ऐसे औचित्यहीन प्रकाशनों को लेकर कड़ा रूख अपनाया गया है जिसे तथाकथित लोगों अभिव्यक्ति की आजादी में खलल बताकर विरोध किया जा रहा है। सच तो यह है कि सही और प्रभावी प्रकाशनों पर कोई प्रतिबंध नहीं है तब अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल कहां उठता है?
अभिव्यक्ति की आजादी का रोना सेटेलाईट टेलीविजनों की बाढ़ आने के बाद से बढ़ा है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों में कटेंट का अभाव है और ऐसे में सनसनी बनाये रखने के लिए ऐसी खबरों को प्रमुखता दी जा रही है जिसका कोई जनसरोकार नहीं, सामाजिक सरोकार नहीं। पत्रकारिता से मीडिया और पाठक से दर्शक में बदलते समय में विश्वसनीयता का संकट यहीं से उपजता है। निजी हमले और ‘निपटा दो’ का टारगेटेड जर्नलिज्म का बिगड़ा हुआ चेहरा यहीं दिखता है। भारत के पत्रकारिता के इतिहास में हमारे पुरखों को अंग्रेजी शासन ने जेल भेजा तो हमने आत्मगौरव का अनुभव किया।
वे अपने काम की खातिर, हमारे और अपने देश के खातिर जेल यात्र की लेकिन आज जब हमारे पत्रकार जेल भेजे जा रहे हैं, तो कारण सबके सामने है। आज के पत्रकारों पर जो लांछन लग रहे हैं, वह दिल को जख्मी कर देने के लिए काफी है। इसी दौर में पीत पत्रकारिता ने अपना घेरा बढ़ाते हुए पेडन्यूज की तरफ बढ़ा। पीत पत्रकारिता की निंदा होती रही लेकिन पेड न्यूज पर लगाम कसने के लिए कार्यवाही भी की गई। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता से टारगेटेड जर्नलिज्म के इस दौर में पत्रकार, पत्रकार नहीं रहे। अब उन्हें मीडियाकर्मी पुकारा जाने लगा है। इसके पहले और शायद आगे भी कभी पत्रकारकर्मी नहीं बुलाया गया। स्वाभाविक है कि श्रमजीवी से आप जब मीडियाकर्मी का तमगा पहन लेंगे तो आप का आचरण भी उसी की तरह होगा।
टारगेटेड जर्नलिज्म की शुरूआत में ऐलान कर दिया गया था कि अब मुद्रित पत्रकारिता के दिन पूरे हो गए हैं लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। थोड़ी खलबली मची और अपने अपने रास्ते पर काम करते रहे। हुआ यूं कि दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी बन जाने के बजाय एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी बन गए। अखबार टेलीविजन पत्रकारिता का स्पांसर बन गया तो टेलीविजन पत्रकारिता की सूचना देने का माध्यम अखबार बन गया।
सबसे खतरनाक और सौ फीसदी टारगेटेड जर्नलिज्म का दौर नव मीडिया के समय हुआ। हालांकि साल 2000 के समाप्त होते ना होते यह नए किस्म के मीडिया ने पैर पसारना शुरू कर दिया था लेकिन लगभग डेढ़ दशक की लम्बी यात्रा के बाद वह बेकाबू ढंग से फैल गया। राजनीतिक दलों ने भरपूर उपयोग किया और अपनी सूचनाएं, अपने पक्ष में लोगों को करने का काम इस मीडिया के माध्यम से किया गया।
हालांकि बोलचाल की भाषा में इस मीडिया को सोशल मीडिया कहा जरूर गया लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी से यह मीडिया बेखबर रहा। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी नियंत्रण का अभाव रहा। नियंत्रण के अभाव में कई बार ऐसी बातें और बयान पोस्ट किए जाते रहे जिससे लोगों की मानहानि हुई। दूसरा इस मीडिया में काम करने वालों ने व्यक्तिगत लक्ष्य बनाया और अनचाहे में कई तरह की विषम स्थितियां समाज के समक्ष खड़ी हुई। सोशल मीडिया में एक बड़ा खेल लाईक और कमेंट का रहा। कहा जाता है कि लाईक और कमेंट का यह एक बड़ा कारोबार है जिसमें एक बड़ा समूह जुड़ा हुआ है जो किसी व्यक्ति, पोस्ट को हिट करने में अपनी भूमिका निभाता है।
हैरानी की बात तो यह है कि इस किस्म का आरोप लगातार लगता रहा लेकिन किसी ने भी तो खंडन किया और ना ही इन आरोपों की कोई जांच की गई। कहा जाता है चुप रहना भी स्वीकार करना होता है तो लगता है कि आरोप बेबुनियाद नहीं हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता से टारगेटेड जर्नलिज्म की तरफ हम बढ़ते चले गए। प्रकाशन और प्रसारण की संख्या में बढ़ोत्तरी चौंकाने वाली है लेकिन मूल उद्देश्य सूचना, शिक्षा और मनोरंजन से हमने शिक्षा के उद्देश्य को तिरोहित कर दिया है। अब हमारे पास सूचनाओं का भंडार है बल्कि विस्फोटक स्थिति में हैं और मनोरंजन का जो सबसे घटिया दर्जा हो सकता है, वह हम छाप रहे हैं और दिखा रहे हैं।
लोकप्रिय और विवादों का कपिल शर्मा शो में कपिल बार-बार पर्दे पर ‘बाबाजी का ठुल्लु’ कहता है और यह डॉयलाग छोटे बच्चों की जुबान पर भी चढ़ गया है। मनोरंजन की यही परिभाषा है तो जॉनी वाकर को भूल जाइए या फिर दूरदर्शन के उल्टा-पुल्टा धारावाहिक को भूले से भी याद मत करिए। भारतीय परिवेश में आज भी इतना खुलापन नहीं आया है कि हम बेशर्म हो जाएं और बेपरदा हो जाएं। यह निपटाने वाले जर्नलिज्म का दौर है तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निपटाया जा रहा है। हमें खुले दिल से इसका स्वागत किया जाना चाहिए ना कि एतराज।
जब 300 साल से कुछ साल पहले पत्रकारिता पर विवेचना करते हैं तो हमारे अपने हालात पर रोना ही आता है। इस बात पर भी दो राय नहीं कि पत्रकारिता का आज जो हाल है, उसके लिए हमारे वरिष्ठ जवाबदार हैं। बड़े-बड़े मंचों से शोर मचाने वाले और पत्रकारिता को गरियाने वाले ये तथाकथित बड़े पत्रकारों ने पत्रकारिता को शुभ की ओर ले जाने में कोई प्रयत्न नहीं किया। पेजथ्री के जर्नलिज्म की बात आज हम करते हैं, वास्तव में वह बहुत पहले से आरंभ हो गया था। सुख-सुविधाओं से सम्पन्न महानगरों के पत्रकारों का एकमात्र लक्षण था कि वह नयी पीढ़ी को गरियायें। बार-बार और हर बार, हर मंच पर बतायें कि पत्रकारिता किस तरह गर्त में जा रही है? किस तरह उसकी विश्वसनीयता पर आंच आ रही है? लेकिन कभी, किसी मंच से पत्रकारिता के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कोई कोशिश होती हुई नहीं दिखी और ना ही कोई सुझाव दिया गया।
पत्रकारिता की नई पीढ़ी को सिखाने की कोई कोशिश पत्रकारिता के इन महानुभावोंं ने कभी नहीं की। इसके बाद भी शिकायतों का पुलिंदा बढ़ता गया। पत्रकारिता का स्तर गिर रहा है, उसकी विश्वसनीयता कटघरे में है तो क्या सत्ता-शासन उसके अच्छे दिनों के लिए काम करेगा? कोई डॉक्टर या इंजीनियर श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए ऑपरेशन करेगा या भवन बनाकर देगा? जब हम स्वयं अपना घर ठीक नहीं कर पा रहे हैं तो विलाप क्यों? हां, इस बात की तारीफ की जा सकती है कि डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता और विविध क्षेत्रों के लोगों में इतना आत्मबल नहीं रहा कि वे अपने क्षेत्रों की गिरावट को समाज के समक्ष कबूल कर सकें लेकिन यह हिम्मत केवल और केवल पत्रकारिता में है सो उसने यह कर दिखाया।
अपने इन्हीं कारणों की वजह से बहुत बिगड़े हालात में भी पत्रकारिता पर समाज का विश्वास है तो इसलिए कि पत्रकारिता आज भी जिम्मेदार है। बस, कुछ तानाबाना बिगड़ गया है, उसे भी ठोंक-पीटकर ठीक कर दिया जाएगा। हां, चिंता है तो इस बात कि इस काम को हम सब मिलकर जितनी जल्दी कर सकेंगे, उतना ही बेहतर होगा। इस बार संकल्प ले लें कि पत्रकारिता के पुराने दिन लौटेंगे और ‘ठोंकने की पत्रकारिता’ होती रहेगी, ‘निपटाने’ की नहीं।
(लेखक शोध पत्रिका समागम के सम्पादक एवं वरिष्ठ पत्रकार है )
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