दुमदारी के इस दौर में दमदार पत्रकारों में नाम शामिल रहेगा आलोक तोमर का

मीडिया            Dec 27, 2016


रमेश शर्मा।
कभी लगता है कि वे हैं यहीं कहीं। कभी एहसास होता है कि जो गए तो अब सिर्फ यादों में ही मिलेंगे। होने न होने, मिलने न मिलने और यादों में मिलने का पीड़ाजनक एहसास वो ही समझ सकता है जिसने इस कष्ट को भोगा है। किसी को खोने का एहसास। कुछ समय खोने का नही हमेशा के लिए खोने का एहसास करीबी ही समझते हैं। आलोक तोमर का व्यक्तित्व ही ऐसा था जिनको खोने का एहसास तो हो सकता है मगर आप उनके करीबी रहे हों तो यह मान ही नहीं सकते कि वे नहीं रहे। वे हैं। हर खबर में नजर आते हैं। जिन्होंने उनको पढ़ा वे जानते हैं कि आलोक होते तो इस खबर को ऐसे लिखते। पैना तीखा विश्लेषण। तेज़ाब उगलती कलम। चीर दे ऐसी धार। शब्दों के जादूगर। खबर के बादशाह।

मौत शरीर की होती है स्मृतियां कभी नही मरतीं। खुद आलोकजी ने इस एहसास के बारे में लिखा जब वे बहुत द्रवित थे। प्रभाषजी के लिए उनके मन में असीम सम्मान था। उनकी मृत्यु पर लिखा – “प्रभाष जी ने कहा था, अभी मैं हूं। सो जब तक मेरी सांस चलती है, प्रभाष जी मेरे लिए हैं। मैं अपनी आत्मा में यह पुष्टि नहीं करना चाहता कि वे चले गए। मैं नहीं चाहता कि मैं अपने आपको लगातार अनाथ महसूस करता रहूं। रही चिता और अस्थि विसर्जन की बात तो कविता में कहूं तो-

तट पर रख कर शंख सीपियां
उतर गया है, ज्वार हमारा।

ज्वार उतरा है मगर प्रभाष जी नाम का समुद्र सूखा नहीं है। इस समुद्र को सुखाने के लिए हजारों सूरज चाहिए। इसीलिए मुझे क्षमा करें, मैं प्रभाष जी की किसी श्रद्धांजलि सभा में नहीं जाऊंगा। उनके प्रति मेरी श्रध्दा मेरी निजी पूंजी हैं जिसे मैं किसी के साथ नहीं बांटना चाहता।”

आलोक तोमरजी ने सत्रह साल की उम्र में एक छोटे शहर के बड़े अखबार से जिंदगी शुरू की। दिल्ली में जनसत्ता में दिल लगा कर काम किया और अपने संपादक गुरु प्रभाष जोशी के हाथों छह साल में सात पदोन्नतियां पाकर विशेष संवाददाता बन गए। फीचर सेवा शब्दार्थ की स्थापना 1993 में कर दी थी और बाद में इसे समाचार सेवा डेटलाइन इंडिया.कॉम बनाया। 27 दिसंबर को जन्मे आलोकजी जब तक जिए सीना जिए। मौत को उत्सव मान के जिए। काल से होड़ की। अंतिम सांस तक। हार नही मानी। अपनी मृत्यु से नौ दिन पहले 11 मार्च 2011 को उन्होंने लिखा –

मै डरता हूं कि मुझे
डर क्यो नहीं लगता
जैसे कोई कमजोरी है
निरापद होना..

वे गर्दिशों के दौर में भी वे कभी विचलित नहीं हुए। वे छाप देते थे डंके की चोट पर। इस दौर में जहां पत्रकारिता की दुनिया बाजारू हो चुकी है, उस दौर में आलोक तोमरजी ने गंभीर सरोकारों वाली पत्रकारिता की। पत्रकारिता को लेकर उनके बारे में उनके शब्दों में ही कहूं तो दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए और उन्होंने भारत में कश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया। दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए। झुकना तो सीखा ही नहीं। वे दाऊद इब्राहिम से भी मिले और सीधी-सपाट बात की, जिसे सरेआम छापा। जब उनको एक कार्टून मामले में जेल जाना पड़ा तो साफ कहा, एक सवाल है आप सब से और अपने आप से। जिस देश में एक अफसर की सनक अभिवक्ति की आजादी पर भी भरी पड़ जाए, जिस मामले में रपट लिखवाने वाले से लेकर सारे गवाह पुलिस वाले हों, जिसकी पड़ताल 17 जांच अधिकारी करें और फिर भी चार्जशीट आने में सालों लग जायें, जिसमें एक भी नया सबूत नहीं हो-सिवा एक छपी हुई पत्रिका के-ऐसे मामले में जब एक साथी पूरी व्यवस्था से निरस्त्र या ज्यादा से ज्यादा काठ की तलवारों के साथ लड़ता है तो आप सिर्फ़ तमाशा क्यों देखते हैं?

समर शेष है, नही पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है, समय लिखेगा, उनका भी अपराध

जनसत्ता में अपनी मार्मिक खबरों से चर्चा में आये आलोक तोमरजी ने सिख दंगों से लेकर कालाहांडी की मौत को इस रूप में सामने रखा कि पढ़ने वालों का दिल हिल गया। यशस्वी पत्रकार आलोक तोमर की स्मृति में पुरस्कार देने की परम्परा सुप्रिया व आलोकजी के मित्रों ने शुरू करके सराहनीय कार्य किया है। आने वाली पीढ़ी को यह जानना जरूरी भी है कि आलोक तोमर का योगदान हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर बन चुका है। दुमदारी वाली पत्रकारिता के इस दौर में उनका नाम हमेशा दमदार पत्रकारों शुमार रहेगा।

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा के ब्लॉग यायावर  से



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