पी.रंजन।
पत्रकारों की आजादी का गला घोंटने के आरोप सरकार या इससे करीबी रखने वाले रसूखदार लोगों पर तो लगते रहे हैं। लेकिन भारत सहित दुनिया के कई देशों में एक नया चलन शुरू हुआ है। दुनिया के कई नामी-गिरामी मीडिया घराने अब सोशल मीडिया पर पत्रकारों की ओर से जाहिर की जाने वाली निजी राय पर बंदिशें लगाने के नियम-कायदे बना रहे हैं। कई मीडिया घराने तो कई साल पहले ये कदम उठा चुके हैं।
यदि भारत के मीडिया घरानों की बात करें, तो अब तक देश में किसी ने भी आधिकारिक तौर पर अपनी सोशल मीडिया पॉलिसी नहीं बनाई है। लेकिन कई संपादकों ने अपने मातहत पत्रकारों को ऐसे फरमान जारी करने शुरू कर दिए हैं, जिससे वे फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल मीडिया साइटों पर खुलकर निजी राय जाहिर ना कर पाएं।
यूं तो बीबीसी विदेशी मीडिया घराना है, लेकिन इसके नियम-कायदों का सीधा असर भारत में बीबीसी हिंदी सेवा के लिए काम करने वाले भारतीय पत्रकारों पर भी होता है। बीबीसी ने 2011 में ही अपने पत्रकारों के लिए सोशल मीडिया पॉलिसी लागू कर दी थी। भारत में काम करने वाले बीबीसी हिंदी के पत्रकार भी इस पॉलिसी से बंधे हैं। नतीजतन, वे खुलकर सोशल मीडिया पर अपनी राय जाहिर नहीं कर पाते।
इसी तरह, दि टाइम्स, लॉस एंजिलिस टाइम्स, सीएनएन और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे मीडिया घरानों ने भी अपने पत्रकारों के लिए सख्त सोशल मीडिया पॉलिसी बना रखी है।
साल 2015 में सीएनएन ने अपनी रिपोर्टर एलिजी लैबॉट को कथित तौर पर एक आपत्तिजनक ट्वीट करने के आरोप में सस्पेंड कर दिया था। एलिजी ने अमेरिकी संसद के निचले सदन हाउस आॅफ रिप्रजेंटेटिव्स की ओर से उस बिल को पास करने की आलोचना की थी, जिसमें सीरियाई शरणार्थियों को अमेरिका में दाखिल होेने से रोकने के प्रावधान थे।
बीबीसी न्यूज चैनल ने एडिटर जैस्मीन लॉरेंस के एक विवादित ट्वीट के बाद उनसे चुनावों की कवरेज की जिम्मेदारी छीन ली थी।
इसी तरह एसबीएस ने अपने मशहूर खेल पत्रकार स्कॉट मैकइंटायर को एक आपत्तिजनक ट्वीट करने के आरोप में नौकरी से निकाल दिया था।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ विदेशी मीडिया घराने ही सोशल मीडिया पर जाहिर की गई राय को लेकर अपने पत्रकारों पर इतनी सख्ती बरत रहे हैं। भारत में भी कई पत्रकारों को सोशल मीडिया पर निजी राय जाहिर करने के बाद कई तरह की परेशानियों का सामना करना पडा है। उनके लिए ये परेशानी किसी और ने नहीं, खुद उनके मीडिया घराने ने खडी की।
भारत का कोई भी पत्रकार 'आॅन दि रिकॉर्ड' अपने अनुभव साझा करने के लिए तैयार नहीं हुआ, लेकिन 'आॅफ दि रिकॉर्ड' कई पत्रकारों ने बताया कि किस तरह उन्हें सोशल मीडिया पर निजी राय जाहिर करने का खामियाजा भुगतना पडा। कुछ पत्रकारों ने दावा किया कि उन्हें नौकरी से हाथ धोना पडा, जबकि कुछ ने दावा किया कि उनकी वेतन बढोत्तरी पर संपादक की बुरी नजर पड गई।
जब-जब सरकार मीडिया को 'रेग्यूलेट' करने की बात करती है तो सारे मीडिया घराने एकजुट होकर कहते हैं कि हम "सेल्फ-रेग्यूलेशन" जानते हैं, सरकार को दखल देने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जब पत्रकारों की निजी आजादी की बात आती है तो यही मीडिया घराने सेल्फ-रेग्यूलेशन की थ्योरी भूल जाते हैं।
यह खासकर तब अहम हो जाता है जब किसी मीडिया घराने का मालिक सत्ताधारी पार्टी के तलवे चाटने के लिए कुख्यात हो, लेकिन उसके यहां नौकरी करने वाला कोई पत्रकार सरकार की नीतियों का विरोधी हो । जरा सोचिए, कि ऐसी स्थिति में कोई पत्रकार सोशल मीडिया पर अपनी निजी राय कैसे जाहिर कर पाता होगा ?
क्या निजी राय जाहिर करने के लिए भी पहले नौकरी की चिंता करनी होगी ? पत्रकारों के लिखने-बोलने पर ये गैर-जरूरी बंदिश क्यों ? आखिर पत्रकार भी तो किसी देश का नागरिक होता है। किसी इंजीनियर, डॉक्टर या मैनेजर की तरह एक पत्रकार को भी अपनी सरकार की खुलकर तारीफ या खुलकर मुखालफत करने की आजादी क्यों नहीं होनी चाहिए ? वो हर वक्त अपने दिलोदिमाग पर पत्रकार होने का टैग लगाकर क्यों घूमे ?
बेशक, पत्रकारों को सोशल मीडिया पर भी अपने पेशे की गरिमा बरकरार रखनी चाहिए। लेकिन ये गरिमा बरकरार रखने के लिए किसी मीडिया घराने को कोई नियम थोपने से परहेज करना चाहिए।
मीडिया घराने अगर अपने आधिकारिक कामों पर ही एक 'स्वतंत्र' और 'निष्पक्ष' संपादकीय नीति सही तरीके से लागू कर लें, तो पत्रकारिता का बहुत भला होगा।
( लेखक पत्रकार हैं )
media vigil
Comments