डॉ राकेश पाठक।
आइये बात करते हैं अतीत से अब तक पत्रकारिता ने सत्ता प्रतिष्ठान का कब कब मुखर विरोध किया...
वह सब जिसके बल पर आप दूसरे दल और नेताओं को जी भरकर कोसते हैं वो सब हमने ही आपको बताया था...हम यानि सच्ची पत्रकारिता ने...नेहरू से लेकर अभी कल तक जो भी सत्ता में रहा उसके गड़बड़झाले चंद्रकांता संतति के अय्यार आपके कान में बता कर नहीं गए बल्कि हम और हमारे जैसे लोग ही सीना तान कर लिखते रहे तब आप आज इतना ज्ञान बाँट रहे हैं...।
आज आपको लगता है कि आपके नेता का ज्यादा मुखर विरोध हो रहा है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि आपका इतिहास बोध ही 2014 के मई महीने की शाम को जाग्रत हुआ है... कोई बात नहीं आपसे पूरी सहानुभूति है और हमारा फ़र्ज़ भी है कि हम बताएं कि कैसे हमारी खबरों से नेहरू ,इंदिरा,राजीव जैसे शिखर नेता कभी बख्शे नहीं गए...।
इंदिरा युग का "नागरवाला काण्ड" सुना है आपने...? नहीं..कोई बात नहीं ..बता दें कि इस काण्ड की खबरों से भूचाल आ गया था। नेहरू युग का मूंदड़ा कांड याद है...नहीं न...इसमें तब के वित्त मंत्री टी टी कृष्णमाचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा था..। नेहरू के ही दौर का "जीप कांड" सुना है ...नहीं न...ये भी हम और पत्रकारिता के हमारे पुरखे ही खोज कर लाये थे... तब भी पत्रकारिता आज से ज्यादा मुखर होती थी। कभी किसी को नहीं बख्शा गया..।
इंदिरा गांधी के विरोध में आपातकाल से पहले जेपी के जबरदस्त आंदोलन में तब की पत्रकारिता पूरी मुखरता से हमकदम थी..। ये सच्ची पत्रकारिता ही थी जो इंदिरा गांधी के पतन का कारण बनी।
आपातकाल के ज़ुल्म भी हम ही ने देश दुनिया को बताये थे।
राजीव गांधी आज के महानायक से कहीं अधिक बहुमत से जीते थे। "मिस्टर क्लीन" की इमेज के साथ प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी को कब बख्शा हमने...? एन राम और चित्रा सुब्रह्मण्यम "बोफोर्स का धमाका लेकर आये और मिस्टर क्लीन देखते ही देखते धूल धूसरित हो गए... लेकिन बोफोर्स से लेकर और तमाम नाकामियों का पिटारा पूरी दमदारी से हम जैसों ने ही खोला था और अंततः उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। राजीव गांधी जब मानहानि विधेयक ला रहे थे तब विरोध में पत्रकारिता के शिखर पुरुषों से लेकर अदना से अदना खबरनवीस दिल्ली की सडकों पर 'मार्च' करने उतर आये थे...।
मनमोहन सिंह के दस साल में पत्रकारिता ने उन्हें और उनकी सरकार को एक दिन चैन से नहीं बैठने दिया..अखबार और न्यूज़ चैनल सरकार के घपलों से भरे रहते थे...जितनी मुखरता से हर नाकामी का पर्दाफाश पत्रकारिता ने किया उतनी ही तेज़ी से तब की सत्ताधारी पार्टी का पराभव हुआ...!
बात बहुत लंबी न हो इसलिए एक फेहरिश्त उन बड़े मामलों की हाज़िर है जो देश की पत्रकारिता के इतिहास में सोने के अक्षरों में दर्ज़ हैं..।
०नेहरू युग:कृष्ण मेनन का जीप घोटाला
* नागरवाला-टी टी कृष्णमचारी कांड
* सिराजुद्दीन काण्ड
* चीन युद्ध में विफलता
0 शास्त्री युग: प्रताप सिंह कैरों का मामला
0 इंदिरा युग: अंतुले का प्रतिभा प्रतिष्ठान काण्ड
* तानाशाही तौर तरीकों का खुलासा
* आपातकाल का घनघोर विरोध
0 जनता पार्टी युग:मोरारजी को सी आई ए एजेंट बताने वाला कांड
* जनता पार्टी की कलह
0 राजीव युग:बोफोर्स तोप घोटाला
* प्रशासनिक नाकामी का खुलासा
0नरसिंह राव युग:झामुमो रिश्वत काण्ड
0 अटल युग:एनरॉन समझौता कांड
*रिलायंस प्रमोद महाजन कांड
0 मनमोहन युग:टू जी घोटाला
* थ्री जी घोटाला
* कोयला घोटाला
* कॉमन वेल्थ घोटाला
ये सब उन लोगों को नहीं मालूम जिन्होंने मई 2014 से पहले न अखबार पढ़े न टीवी देखा...तभी तो
आज वे इसलिए व्यथित हो रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ लिखा जा रहा है।
सन् 47 से अब तक पत्रकारिता ने हमेशा सत्ता की विसंगतियों पर कलम चलायी लेकिन तब कभी किसी ने पत्रकारिता को देशद्रोही नहीं कहा। तब सरकार का विरोध देश का विरोध नहीं कहलाता था।
आज कुछ लोगों को लगता है कि मीडिया ( पहले सिर्फ प्रिंट था अब इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल भी है) उनके महानायक के कामकाज की मीमांसा करके कोई अक्षम्य पाप कर रहा है।वे दिन रात मीडिया को बिकाऊ ,देशद्रोही आदि बता कर "कुम्भीपाक नर्क" का श्राप दे रहे हैं।
...तो हे प्रियजनों..
हमारे लिए लिए न पहले कोई प्रधानमंत्री पवित्र गाय था,न आज है और न कल होगा। मोदी से पहले वालों के धत करम भी आपको नानी- दादी ने कहानियों में नहीं सुनाये थे और न देवकीनन्दन खत्री की "चंद्रकांता संतति" के ऐयार आपको कान में बताते थे....वो भी हम और हम जैसे कलमघसीट लोग ही खोज कर आपके लिए लाये थे।
अगर अपने दिव्य पुरुष की आराधना और फोटो, वीडियो मॉर्फिंग से फुरसत मिले तो किसी लायब्रेरी में मई 2014 से पहले का कोई भी अखबार पलट कर देख लेना। पता लग जायेगा कि तब पत्रकारिता कितनी मुखरता से सत्ता की बखिया उधेड़ती थी।
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