आलोक मेहता।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर वोट मांगे जाने को अवैध करार दिया। अब पांच राज्यों में विधान सभाओं का चुनावी बिगुल बज गया है। उम्मीदवार न सही वर्षों से जाति-धर्म के झंडे-डंडे लेकर चुनावी अखाड़े में शक्ति प्रदर्शन करने वाले आसानी से पीछे नहीं हटने वाले हैं।
भाजपा के साक्षी महाराज ने जनसंख्या के बहाने ही सांप्रदायिक जहर उगलना शुरू कर दिया। विभिन्न दलों या संगठनों में सांप्रदायिक भावना भड़काने वाले ऐसे कुछ नेता हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं हुई हैं। असली मुद्दा यह है कि चुनावी आचार संहिता एवं राजनीतिक दलों के लिए बने नियम-कानूनों के उल्लंघन की गंभीर शिकायतों और आरोपों पर कार्रवाई में कितना समय लगता है?
सांप्रदायिक भाषणों पर कानूनी अंकुश का प्रावधान पहले भी रहा, लेकिन शिकायतों पर सुनवाई में महीनों से दस-बीस वर्ष तक लग जाते हैं। चुनाव आयोग और निचली से उच्चतम अदालतों तक मामलों की सुनवाई की गुंजाइश रहती है। वहीं राजनीतिक दल टिकट बंटवारे में जातीय समीकरणों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते रहे हैं। कुछ राजनीतिक दल तो हर गांव, कस्बे, मोहल्ले की मतदाता सूचियों में जाति-धर्म के आधार पर समर्थकों को जोड़ने-घटाने का खेल करते हैं।
पराकाष्ठा यह है कि इस प्रवृत्ति की आलोचना करने वाले भारतीय मीडिया का बड़ा वर्ग हर रिपोर्ट एवं विश्लेषण में जातीय समीकरणों और उम्मीदवारों की जातियों एवं धार्मिक मान्यताओं की विस्तार से चर्चा करते हैं। प्रिंट, टीवी या डिजिटल मीडिया में चुनाव अभियान के दौरान जाति-धर्म, संप्रदाय का उल्लेख करने वाले वक्तव्यों, विज्ञापनों पर अंकुश के लिए अदालतों ने अब तक कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं। चुनाव आयोग और भारतीय प्रेस परिषद ने पहले भी पेड न्यूज के विरुद्ध गंभीर टिप्पणियां की और लंबी-चौड़ी रिपोर्ट जारी की। लेकिन अधिकांश दल, नेताओं या मीडिया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। धंधा मंदा नहीं मुनाफे की चांदी बढ़ाने वाला होता गया है। हर क्षेत्र में ‘स्वच्छता अभियान’ और ‘सर्जिकल ऑपरेशन’ के दौर में मीडिया के अनुचित हथकंडों पर कड़ा आपरेशन कब होगा?
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