रवीश कुमार।
प्रधानमंत्री ने तो कहा था कि ग़रीब चैन की नींद सो रहे हैं और अमीरों की नींद उड़ गई है। 12 जनवरी के इकोनोमिक्स टाइम्स से इस बात का एक मतलब समझ आता है। नोटबंदी के दो महीनों में अमीरों की नींद नहीं उड़ी थी। बल्कि वे तो प्राइवेट जेट से उड़ रहे थे। मिहिर मिश्रा की रिपोर्ट है। 2014 और 2015 के नंवबर महीने में बिजनेस जेट की उड़ानों में 3.3 फीसदी और 7.8 फीसदी कमी आई थी। 2013 के नवंबर में बिजनेस जेट की उड़ानों में 8.8 फीसदी तेज़ी आई थी क्योंकि तब राजस्थान, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और दिल्ली में चुनाव थे। लेकिन नोटबंदी के नवंबर में प्राइवेट जेट की उड़ान में चुनावों से भी ज्यादा तेज़ी आई है। 12.2 फीसदी। कारण किसी को नहीं पता। लेकिन इस रिपोर्ट में किसी ने गेस किया है कि अघोषित नगदी नोटों को लेकर उड़ानें भरी गई होंगी। क्या आपको वो ख़बर याद है कि हिसाब से एक प्राइवेट जहाज़ नागालैंड के दीमापुर की तरफ उड़ा। उसमें 3.5 करोड़ रुपये थे। तब ऐसी ख़बरें आई थीं कि पूर्वोत्तर के राज्यों में पुराने नोटों की खपत हो रही है। इन ख़बरों का क्या हुआ, आपको कुछ याद है?
आराम से पता चल सकता है कि नोटबंदी के महीनों में प्राइवेट जेट से क्यों उड़ानें भर रहा था। कहां से कहां जा रहा था। एक अनुमान यह भी है कि बैंकों तक नोट पहुंचाने के लिए प्राइवेट जेट का इस्तमाल हुआ होगा। मगर तस्वीर तो सेना के विमान की छपा करती थी। ख़ैर ये भी सरकार चाहे तो बता सकती है। दिक्कत है कि सरकार जो बोलती है वो अलग अलग एजेंसियों के दावों से कम ही प्रमाणित होता है। सरकार ख़ुद से तो बताती नहीं है। सिर्फ पारदर्शिता के नाम पर आपको एप पकड़ा देती है।
इकोनोमिक टाइम्स की ही रिपोर्ट है कि सभी सरकारों के प्रिय एन आर आई लोगों ने अक्तूबर नवंबर में 17 अरब डॉलर निकाल लिये। जिसके कारण रुपया कमज़ोर हो गया। एक लाख सोलह हज़ार करोड़ रुपया निकाल ले गए। पैसे के मामले में कोई राष्ट्रवादी नहीं होता। सब धंधा करते हैं और जहां निवेश पर मुनाफा ज़्यादा मिलेगा वहां पैसा लेकर जायेंगे। एन आर आई के अलावा विदेशी निवेशक भी साढ़े पांच अरब डॉलर पैसा निकाल ले गए हैं। मगर जितना विदेशी निवेशक नहीं निकाल ले गए उससे कहीं ज़्यादा अप्रवासी भारतीय अपना पैसा भारत से निकाल ले गए हैं। क्या भारत की अर्थव्यस्था की शानदार कहानियों में उनका विश्वास नहीं रहा ?
बिजनेस अख़बारों में अब ऐसे बयान छपने लगे हैं कि मोदी के आइडिया तो शानदार हैं मगर लागू नहीं हो पा रहे हैं। हिन्दुजा ग्रुप के जी पी हिन्दुजा ने इकोनोमिक टाइम्स से कहा है कि अगर प्रधानमंत्री महीने में आधे घंटे के लिए भी तमाम प्रोजेक्ट की समीक्षा करते तो भारत स्वर्ग बन गया होता। तो क्या भारत के प्रधानमंत्री इतना भी नहीं करते होंगे। ये कौन सा आइडिया है कि लागू नहीं होने पर भी तारीफ प्राप्त कर रहा है। प्रधानमंत्री की असली छवि तो करने वाले की रही है। लेकिन जब उनके करने पर ही सवाल उठने लगे तो आइडिया के ढाल से कब तक बच सकते हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड में TRAI के पूर्व चेयरमैन राहुल खुल्लर का लंबा सा लेख छपा है। राहुल कहते हैं कि ढाई साल बाद भी मेक इन इंडिया महज़ एक नारा है। इसकी कोई भी नीति नहीं है। क्या ये मामूली बात है। दरअसल हिन्दु मुस्लिम और व्यक्तिवादी राजनीतिक मुद्दों की आड़ में ये सब सवाल छिप जाते हैं। आलोचकों को भी पता नहीं होता और मोदी भी बच जाते हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की पहली ख़बर यही है कि 2016-17 के पहले आठ महीनों में इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर बैंकों से धीरे धीरे लोन लेने लगे थे। धीमी गति से ही सही वृद्धि हो रही थी। मगर नवंबर महीने में बैंकों से कर्ज लेने में भारी गिरावट आई है। कर्ज कम लेने का मतलब है कि जो मंज़ूर परियोजनाओं को पूरा करने का काम या तो शुरू नहीं हुआ या फिर धीमा रह गया है।
इस बीच बिजनेस अखबारों में रोज़ कोई न कोई रेटिंग एजेंसी भारत की जीडीपी की दरों को कम कर दे रही है। जब यही रेटिंग एजेंसी जीडीपी रेट बढ़ने की भविष्यवाणी करती है तो पूरी सरकार का चेहरा खिला होता है। उन एजेंसियों का नाम लेकर दावे किये जाते हैं। FITCH रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि 2016-2017 के वित्तीय वर्ष में जीडीपी ग्रोथ 6.9 ही रहेगी। जबकि उसने 7.4 प्रतिशत रहने की भविष्यवाणी की थी। विश्व बैंक ने भी कहा कि भारत की जीडीपी 2016-17 के वित्त वर्ष में 7 फीसदी रहेगी। जबकि उसने भी भविष्यवाणी 7.6 फीसदी की थी।
इसका मतलब है कि नौकरियां कम होंगी। सैलरी कम बढ़ेगी। जो लोग पढ़ कर निकल रहे हैं उन्हें मौके नहीं मिलेंगे। जो लोग ज़िंदगी भर घिस कर एक अच्छी तनख्वाह के स्तर पर पहुंचे हैं, वो छांट दिये जाएंगे। मीडिया सेक्टर से तो ऐसी ख़बरें आने भी लगी हैं। पेशेवर साथियों के फोन कॉल से रातों की नींद उड़ रही है। citizen.in में सीमा मुस्तफ़ा ने लिखा है कि कई अखबारों में नौकरियां गई हैं। अख़बारों के पन्ने कम हो गए हैं। कई संस्करण बंद होने लगे हैं। साथियों की नौकरी जाने की ख़बर परेशान करती है। किसी में पूरा जीवन लगा कर खुद को इस काम के लिए तैयार किया और एक मोड़ पर छाँट दिया जाए तो अच्छा कैसे लग सकता है। जब विज्ञापन नहीं मिलेंगे तो नौकरियां जाएंगी। तमाम मीडिया संस्थान सरकार की तारीफ करते हुए भीतर—भीतर पेट दर्द की शिकायत कर रहे हैं। यह भी क्या दौर है? देख रहे हैं कि कारवां लुट रहा है मगर पूरी महफ़िल लीडर की तारीफ में मशरूफ़ है।
मुझे भी लगता है कि मीडिया की हालत पर अब लिखना बंद कर देना चाहिए। किसी का फोन आता है तो दिल सहम जाता है। हम आज तक किसी को नौकरी नहीं दे सके फिर भी जाने की बात सुनकर चिंता होती है। मंदी आती है तो काबिल लोगों की भी छंटनी हो जाती है। इस दौर में तो किसी को मिलेगी भी नहीं। हमने अर्थव्यवस्था के जिस मॉडल को चुना है और जीया है उसमें छंटनी को शोक नहीं माना जाता। बल्कि बिजनेस को तेज़ करने का उत्सव है। 45 साल के बाद के लोगों का कुछ साल बाद क्या होगा? हम सबकी बारी आएगी।
फिलहाल,वित्त मंत्री जो कह रहे हैं उसे ही हर हाल में सही मान लेना चाहिए। क्योंकि उनकी बातें दुख हरने वाली लगती हैं। भले ही नौकरी जा रही हो मगर उन्हें सुनकर लगता है कि भारत की अर्थव्यस्था नौकरी जाने वालों की ग़ैरहाज़िरी में भी अपना स्वर्णिम इतिहास लिख रही है। जिनकी नौकरी जा रही है उन्हें भी वित्त मंत्री का सुमिरन करना चाहिए। जब बैंकों में लगे लोगों ने विरोध नहीं किया, देश के लिए इतनी तकलीफें सही तो नौकरी जाने पर पत्रकारों को भी देश के लिए सहना चाहिए। मुझे पता नहीं क्या बोल रहा हूं। शायद आपको पता हो। ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद। फलना भाई ज़िंदाबाद। चिलना भाई ज़िंदाबाद।
कस्बा से साभार।
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