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मौन और मुखरता के बीच पत्रकारिता

मीडिया            Mar 29, 2018


विनय द्विवेदी।
कितनी आसानी से आप पत्रकार को दलाल कह देते हैं और सत्ता तंत्र ब्लैक मेलर घोषित कर देता है। लेकिन इसी सब के बीच पत्रकार पर फर्जी मुकदमें लगा कर जेल भेज दिया जाता है। हत्या कर दी जाती है। अगर अपनी मनोगत, वैचारिक, राजनैतिक कुंठाओं से फुरसत मिले तो सोचियेगा जरूर कि फिर भी पत्रकार ही है जो आप तक ख़बरें पहुंचाता है, सरकारों, नेताओं और अफसरों और कई बार अपने सीनियर और अपने प्रबंधन से जूझता-भिड़ता हुआ मैदान में भले अकेला होते हुए भी अपनी पत्रकारीय पक्षधरता और जन सरोकारों पर फौलादी निडरता के साथ खड़ा रहता है।

जब देश के दुश्मनों से लोहा लेते हुए कोई सैनिक शहीद होता है तब हमारे मन में शहादत को सम्मान और सैलूट के भाव आते हैं, ये स्वाभिक हैं और आने भी चाहिए। लेकिन जब मध्यप्रदेश के भिंड के संदीप शर्मा और ऐसे ही जाने कितने नाम और गुमनाम पत्रकारों की हत्या कर दी जाती है या झूठे मुकदमों में जेल में डाल दिया जाता है तब लोगों की आँखों पर भाँती—भाँती के चश्में चढ़ जाते हैं।

यही वो दोगलापन (इस शब्द के उपयोग के लिए माफ़ी चाहता हूँ) है जो हमारे देश और समाज को सही दिशा में आगे बढ़ने से रोकता है। पत्रकार आसमान से नहीं टपकते, इसी समाज में पैदा होते हैं। जिसमें बाकी सभी पैदा होते हैं। जितनी शिद्दत के साथ पत्रकारों को गालियां और गोलियां दी जाती हैं उतनी शिद्दत से ज़रा राजनीति और सत्ता तंत्र को भी कसौटी पर कसियेगा, तब ही फ्रेम में मौजूद चहरे देखे जा सकते हैं।

जिन घपलों-घोटालों, अनियमितताओं और गैर कानूनी कामों को लेकर इस देश और प्रदेशों में राजनीति होती है वे सब के सब पत्रकारों के काम की वजह से ही लोगों तक पहुंचते हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज भी पत्रकारों के बीच आकर अपनी बात कहते हैं, मतलब साफ़ है कि गोदी मीडिया, दलाल मीडिया और ना जाने क्या कुछ के बीच अब भी पत्रकार ही भरोसे के काबिल हैं। इसके बाद भी जब आप अपनी सहूलियत का चश्मा पहन कर पत्रकारों पर निशाना साधते हैं तब तकलीफ होती है।

पत्रकार का भी परिवार होता है लेकिन सारी विषम परिस्थितियों के बावजूद अब भी इस देश के लोगों के लिए पत्रकार मर रहे हैं, लेकिन आप उनके लिए क्या कर रहे हैं? जब आम लोग पत्रकारों के साथ खड़े होने लगेंगे तब कल्पना कीजिये, इस देश की तस्वीर कैसी होगी। लेकिन सामाजिक सोच जब ये होगी "कि भगत सिंह पैदा हों लेकिन पड़ोस में" तब आप अपनी कुंठाओं से पत्रकार पर तोहमतें ही लगा सकते हैं।

राजनीति और सत्ता तंत्र यही तो चाहता है कि पत्रकारिता को या तो खरीद लिया जाए या फिर कुचल दिया जाए और अगर फिर भी पत्रकारिता ज़िंदा बची रहे तो उसे इस हद तक बदनाम कर दिया जाए की समाज का भरोसा ही उस पर से उठ जाते ताकि सत्ता की आँख में आँख डाल कर निडरता से सवाल करने वाले बचे हुए लोग भी रास्ते से हटा दिए जाए।

मैं नहीं कहता कि पत्रकारिता में सबकुछ उच्च स्तरीय पत्रकारीय मानदंडों के अनुरूप है। पत्रकारिता में भी वह सब बुराइयां हैं जो दूसरे क्षेत्रों में हैं लेकिन फिर भी अगर किसी से उम्मीद की जा रही है तो वो पत्रकारिता ही है। यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि जो पत्रकार नहीं हैं वे लोग पत्रकारिता की मुश्किलात को समझ ही नहीं सकते।

बड़े शहरों में बड़े बैनरों और बड़े नामों के साथ पत्रकारिता करना अब भी तुलनात्मक रूप से आंचलिक पत्रकारिता से कुछ हद तक आसान है। पत्रकारिता के नाम पर पता नहीं कितने संगठन हैं लेकिन उनमें से कितने संगठनों की प्राथमिकता में पत्रकारिता है? पत्रकारिता के स्वयंभू मठाधीश भी भिंड के संदीप शर्मा की मौत पर मौन हैं।

पत्रकारों में भी अपने अपने मौन और अपनी अपनी मुखरता है। एक लम्बे समय बाद पत्रकारीय वजहों से होने वालों दमन के खिलाफ मुखरता में भोपाल के पत्रकारों की आवाज की गूँज को राष्ट्रीय स्तर तक सुना गया है लेकिन संदीप की मौत पर भोपाल की पत्रकारिता में तक़रीबन सन्नाटा आखिर क्यों?
लेखक खरी न्यूज वेबपोर्टल के संपादक हैं।

 


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