अंकित राज।
कुल मिलाकर पत्रकारिता का Honeymoon Period चल रहा है। घमंड में चूर हमारे प्रधानमंत्री ने आज तक इन टुच्चे पत्रकारों के लिए एक प्रेस कांफ्रेंस तक नहीं की।
सब मुंह ताकते रह गए कि कभी तो पीएम से एक सवाल पूछने का मौका मिल जाए लेकिन नरेंद्र मोदी को इन दो कौड़ी के पत्रकारों की औकात अच्छे से पता है उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की तो नहीं की।
फिर भी ये महाशय सब उनके एक बार बुलाने पर मुफ्त की रसमलाई चाटने और सेल्फी लेने चले जाते हैं। आत्मसम्मान तो बेच खाया है इन सब ने।
ध्यान देने वाली बात ये भी है कि इस दिवाली मंगल मिलन समारोह का आयोजन भारत सरकार ने नहीं किया बल्की बीजेपी ने किया था। इस बात की गवाह समरोह में लगी बड़ी वाली पोस्टर थी जिसपर लिखा हुआ था ''दिवाली मंगल मिलन, भारतीय जनता पार्टी''
मतलब कि ये सत्ताधारी बीजेपी और मर चुकी पत्रकारिता का मिलन था। ये भारत सरकार और पत्रकारों की मीटिंग नहीं थी।
चंद रोज पहले ही वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा को बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ की पुलिस घर से आतंकवादियों की तरह उठा कर ले गयी। सत्ता की गुलाम बन चुकी पुलिस ने विनोद वर्मा का मुंह दबा कर उन्हें गाड़ी में बैठा लिया ताकि वो अपनी बात दुनिया तक न पहुंचा सके।
कुछ दिनों पहले ही बीजेपी शासित राज्यस्थान में एक ऐसा बिल पेश किया गया था जिसके मुताबिक पत्रकार को सवाल पूछने पर दो साल की सजा हो सकती है लेकिन फिर भी इन पत्रकारों का जमीर नहीं जागा और चल दिए दिवाली मिलन करने। मुझे पूरा भरोसा है वहां किसी ने भी पीएम से इसपर सफाई नहीं मांगी होगी, चर्चा भी नहीं किया होगा। सोच रहे होंगे कि क्यों रंग में भंग डालना, चुपचाप समोसा चटनी खीचा जाए।
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स के 180 देशों की लिस्ट में भारत 136वें नंबर पर पहुंच चुका है जो पिछले साल 133वें नंबर पर था। युगांडा, नोपाल, भूटान हमसे अच्छी स्थिति में है। इस बात की चिंता भी किसी मुफ्त की रसमलाई चाटने वाले पत्रकार को नहीं हुई होगी कि आखिर क्यों हमारी आज़ादी हमसे हर रोज छीनी जा रही है?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो सालों के दौरान देश भर में पत्रकारों पर 142 हमलों के मामले दर्ज किये हैं जिसमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश (64 मामले) फिर मध्य प्रदेश (26 मामले) और बिहार (22 मामले) में दर्ज हुए हैं।
2017 में अब तक 24 पत्रकार मारे जा चुके हैं। ज्यादतर वो पत्रकार मारे गए जिनके पास राजनीति और भ्रष्टाचार जैसे बीट थे। आकड़ों के मुताबिक मारे गए 48% पत्रकारों का किसी राजनीतिक ग्रुप की ओर से कत्ल किया गया लेकिन, इस बात से भी क्या फर्क पड़ता है? भुख्खड़ पत्रकारों को तो बस चाटना है और फोटो खिचवाना है।
पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को बेंगलुरु जैसे शहर में उनके घर में घुसकर मार दिया गया। उनसे पहले गोविन्द पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, एमएम कलबुर्गी की आवाजों को खामोश कर दिया गया था।
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