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फिल्म समीक्षा:डूबते अक्षय कुमार के लिए तिनका है सरफिरा

पेज-थ्री            Jul 13, 2024


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

सरफिरा के पहले दिन के अधिकांश दर्शक फोकटिया थे। कॉलेज के छात्र। खिलाड़ी कुमार लगातार फ्लॉप दे देकर फ्लॉप कुमार साबित हो रहे।  उनकी बड़े बजट की  'रक्षा बंधन', 'राम सेतु', 'बड़े मियां छोटे मियां', 'सेल्फी', 'पृथ्वीराज' और 'बच्चन पांडे' बैक टू बैक फ्लॉप रहीं।

अक्षय हर फिल्म में एक जैसे लगते हैं। पृथ्वीराज हो या बच्चन पांडे ! उनकी सरफिरा, तमिल फिल्म 'सुराराई पोत्तरू' का हिन्दी रीमेक है। बासी कहानी।  इसका हिन्दी वर्जन ओटीटी पर है ही। उसमें तमिल सुपरस्टार सूर्या थे, उसे  पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले थे। चार साल बाद सरफिरा आई है। 

करीब बीस साल पहले  स्टार्टअप आया था,  एक एयरलाइन शुरू हुई थी, जिसने एक रुपये में हवाई जहाज का टिकट देने का दावा किया था। दावा फ्रॉड निकला।  कंपनी को तो बंद तो होना ही था, हो गई ! उसके मालिक थे जी आर गोपीनाथ।  सरफिरा उनकी कहानी नहीं है, बल्कि उनके जीवन से प्रेरित है। मनोरंजन के लिए है। 

मोटिवेशन  के नाम पर भरमाती है फिल्म। अक्षय कुमार इसमें ऐसे येड़े  (सनकी-ज़िद्दी के लिए मराठी स्लैंग) बने हैं, जिनका साबका दूसरी येड़ी राधिका मदान से पड़ता है। दोनों के अपने ख़्वाब हैं।

उसे जमीन पर लाने के लिए दोनों काम करते हैं। फिल्म में उन्हें काम करते बहुत कम दिखाया गया है, वे केवल लक्ष्य की बात करते हैं और आम हिन्दी फिल्म के हीरो की तरह नाच गाना, उछल -कूद, रोमांस में लगे रहते हैं।

यानी फिल्म में मोटिवेशन के नाम पर नाच गाना, उछल -कूद, रोमांस ही है। ले लो मोटिवेशन! काहे का मोटिवेशन? फिल्म में हीरो मय्यत में डांस करता है, आप और हम करने लगें तो जूते पड़ना तय है। भाई, गरीब आदमी अक्षय कुमार की कंपनी का हवाई  जहाज का टिकट एक रुपये में खरीद भी लेगा तो एयरपोर्ट तक जाने-आने का टैक्सी भाड़ा क्या अब्बा हुजूर देंगे? कॉमेडी के लिए ठीक है, पर बात कन्विंसिंग नहीं लगती।

पूरी फिल्म मोटिवेशन के नाम पर ऐसे घटनाक्रमों से भरी पड़ी है जो सहज नहीं है। बेटा विमान कम्पनी खोलने की तैयारी में है।  उसके पास जहाज का टिकट खरीदने के पूरे रुपये नहीं है। एयरपोर्ट टिकट काउंटर पर पता चलता है कि टिकट 11 हजार 200 का है।

पास में 6000 ही हैं। वह एयरपोर्ट पर अनजान लोगों से उधार/भीख मांगता है कि 5200 रुपये दे दो, जाना ज़रूरी है। धकियाकर बाहर किया जाता है। क्या जरूरी थे ऐसे सीन फिल्म में? क्या  हीरो को पता नहीं था कि डेबिट कार्ड/क्रेडिट कार्ड नाम की वस्तु भी होती है।

नवोदित विमान कम्पनी का मालिक किसी ट्रेवल एजेंट को फोन नहीं कर सकता था? ऐसे एक नहीं, कई घटनाक्रम हैं, जो बताते हैं कि निर्देशक दर्शकों को निरा मूर्ख समझते हैं। 

अक्षय कुमार ही स्क्रीन पर छाये रहते हैं। उनकी एक्टिंग में नयापन नहीं बचा। राधिका मदान और परेश रावल, सीमा बिस्वास अपनी जगह फिट हैं।  इंदौर की पूर्वा जोशी छापेकर भी छोटी और प्रभावी भूमिका में हैं।

फिल्म पारिवारिक हैं। गालियां, हिंसा,अश्लीलता नहीं है। साफ़ सुथरा मनोरंजन पेश करने की कोशिश है। कई सारे प्रसंग मनोरंजक हैं, कई जगह जबरन इमोशन डाला गया है। मजेदार नहीं, पर झेलनीय है ! झेल सकते हैं।

 

 


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