राकेश दुबे।
देश के राजनीतिक मंच पर एक सवाल बहुत तेज़ी से तैर रहा है, 135 दिन चली यात्रा ने राहुल गांधी की एक नेता के रूप में छवि को कितना उभारा और इससे कांग्रेस को कितना लाभ होगा?
राहुल गांधी की कन्याकुमारी से जम्मू-कश्मीर तक की भारत जोड़ो यात्रा और कुछ हासिल हुआ हो या होगा की नहीं अलग बात है।
राहुल गांधी ने उस धारणा को तोड़ा है, जिसमें उन्हें एक अगंभीर राजनेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश होती रही है।
देश के दक्षिणी सिरे से 7 सितम्बर को शुरू हुई करीब चार हजार किमी यात्रा को मौसम की जटिलताओं और भौगोलिक चुनौतियों के बीच अंजाम देना सहज-सरल कार्य नहीं था।
रक्त जमाती सर्दी में उनका लगातार टी-शर्ट में रहना कौतूहल का विषय बना रहा है। जिसकी व्याख्या उन्होंने समाज के उन गरीब लोगों के प्रति संवेदना की बात कही, जिनके पास तन ढकने के लिये कपड़े नहीं होते।
नि:संदेह राहुल ने इस यात्रा के जरिये शारीरिक व मानसिक सहनशक्ति दर्शायी है, वे लगातार भाजपा व संघ पर हमलावर रहे और देश की बहुलतावादी संस्कृति के संरक्षण की बात करते रहे।
चलिए, सुस्त होती कांग्रेस में कम से कम एक संदेश तो गया कि उनके बीच कोई जूझने वाला नेता खड़ा है।
राहुल लगातार इस कथन को खारिज करने का प्रयास करते रहे कि देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है, इसमें वे और उनकी पार्टी कितनी सफल रही आने वाले चुनाव बताएँगे ।
वैसे उनका प्रयास आगामी आम चुनाव के लिये कांग्रेस पार्टी संगठन में प्राणवायु का संचार करने का तो था ही ।
देश के राजनीतिक परिदृश्य में यह बहस आम है कि राहुल गांधी की इस पदयात्रा से क्या हासिल हुआ?
क्या राहुल पदयात्रा में मिले समर्थन को आगामी चुनावों में वोटों में तब्दील कर पायेंगे ? क्या वे राजग सरकार के खिलाफ विपक्ष का महागठबंधन बना पाएंगे?
हालांकि यह भी सत्य है कि विभिन्न राज्यों में सरकार चला रहे विपक्षी दलों के क्षत्रपों का अपेक्षित समर्थन उन्हें यात्रा के दौरान नहीं मिल पाया।
कुछ ही विपक्षी दल उनकी यात्रा में शामिल हुए हैं। सवाल यह भी कि क्या इस पदयात्रा के बाद आगामी आम चुनाव में कांग्रेस विपक्ष को नेतृत्व देने की स्थिति में होगी ?
यहां सवाल यह भी है कि अब जब भाजपा 2024 के आम चुनावों के लिये बिगुल फूंक चुकी है तो राहुल गांधी क्या मोदी-शाह की महारथ का मुकाबला करने की स्थिति में आए हैं?
फिर भी कह सकते हैं कि नागरिकों से सीधा संवाद और उनकी सहानुभूति हासिल करने में राहुल गांधी कुछ कामयाब तो हुए हैं।
इसकी वजह यह भी है कि आम आदमी के दैनिक जीवन से जुड़े मुद्दों और समस्याओं को राहुल ने पदयात्रा के दौरान शिद्दत से उठाया है।
अब कांग्रेस को यह ध्यान रखना होगा कि स्पष्ट, निर्णायक, व्यावहारिक संगठनात्मक रणनीति के अभाव में राहुल के प्रयासों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकती है।
भारत जोड़ो यात्रा इस दिशा में प्रयास का एक शुरुआती बिंदु कहा जा सकता है।
दूसरी ओर कश्मीर में पदयात्रा के समापन पर शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में आयोजित रैली में राहुल ने जिस तरह भावनात्मक संवाद किया, उसने कम से कम कश्मीर के लोगों के दिल को तो जरूर छुआ ।
उन्होंने देश की विविधता की संस्कृति के पक्ष में आवाज बुलंद करने का प्रयास भी किया। साथ ही हिंसा के दर्द को महसूस करने की बात भी कही और इसे खत्म करने के लिय व्यावहारिक उपायों पर बल दिया।
कट्टरवाद को खारिज करते हुए उन्होंने अहिंसा के पुजारियों की समृद्ध परंपरा का जिक्र करते हुए महात्मा गांधी का स्मरण किया।
भले ही भाजपा सिरे से राहुल गांधी की यात्रा की सफलता को स्वीकार नहीं कर रही है लेकिन राहुल ने भाजपा के सामने कई चुनौतियां जरूर पैदा कर दी है ।
अब कांग्रेस के नीति-नियंताओं पर निर्भर करता है कि राहुल की यात्रा से दिखते दृश्य को वास्तविक उपलब्धियों में वे कैसे बदलते हैं।
इस साल नौ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव व अगले साल होने वाले आम चुनाव इसकी परीक्षा की कसौटी होगी।
निस्संदेह कांग्रेस को संगठन समेत कई स्तरों पर कड़ी मेहनत करने की जरूरत है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस यात्रा से मिले अनुभवों से राहुल एक परिपक्व राजनेता के रूप में उभरेंगे और सुस्त होती जा रही कांग्रेस चैतन्य होगी।
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