दीपक तिवारी।
अब तक शिवराज सिंह ने जितनी भी लड़ाइयां लड़ी हैं उसमें हमेशा उनकी पार्टी, आरएसएस और उनके कुछ चुनिंदा साथी हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर साथ में खड़े रहे। चाहे 2008 फिर 2013 के विधानसभा चुनाव या फिर डंपर या व्यापम काण्ड जैसे संकट हों।
पहली बार ऐसा हो रहा है जब बेचारे मुख्यमंत्री अकेले ही जुटे हुए हैं। वे रोज़ 16-17 घंटों काम कर रहे हैं, सुबह से निकल जाते हैं और एक दिन में कई ज़िलों की ख़ाक छानते हैं। कहीं पत्थर, कहीं जूते, कहीं काले झंडे कहीं ज़बरदस्त स्वागत कहीं कानफोड़ू ज़िंदाबाद सब अकेले ही झेल रहें हैं।
लेकिन बाक़ी के भाजपा नेता नदारद है।
ऐसा पहली बार हुआ है जब केंद्रीय नेतृत्व शिवराज सिंह के साथ खड़ा हुआ दिखाई नहीं दे रहा। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भी उनकी पसंद का नहीं है। सो पूरा चुनाव अभियान एक ही धुरी पर आकर केंद्रित हो गया।
अगर कोई साथ में है तो उनकी छवि और प्रचार का काम देखने वाला जनसंपर्क विभाग और कुछ विश्वस्त अधिकारी। जनसंपर्क में भी पहली बार ऐसा हुआ की एक साथ चार धनुर्धर - एक से बढ़कर एक क्षमतावान लोग— मुख्यमंत्री का मीडिया मैनेजमेंट संभाल रहे हैं। अब इतने सारे रसोइए मिलकर चुनावी जीत की खिचड़ी पका रहे हैं …..देखते हैं क्या होता है ?
बड़ा धर्मसंकट आन पड़ा है मुख्यमंत्री पर….. कांग्रेस के नेताओं की चुनौती से निपटें या अपने पार्टी के भीतर नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के कारण पनप रहे असंतोष से।
कांग्रेस पार्टी ने अपनी बदली हुई रणनीति के तहत सभी नेताओं की एक साथ रैली करने की बजाए अलग-अलग क्षेत्रों में सभाएँ करने का नया तरीक़ा विकसित कर लिया है, वहीं शिवराज सिंह अकेले ही लगे हैं।
मध्यप्रदेश से एक दर्जन के लगभग भाजपा नेता केंद्र सरकार में मंत्री या महत्वपूर्ण पदों पर है, लेकिन नरेंद्र सिंह तोमर की एक आध-सभा के अलावा किसी ने आज तक चुनावों के बाबत प्रदेश में कुछ ऐसा नहीं किया जो दिखाई दिया हो।
कहाँ हैं सुषमा स्वराज, सुमित्रा महाजन, उमा भारती, थावरचंद गहलोत, प्रकाश जावडेकर, वीरेंद्र कुमार, एमजे अक़बर, धर्मेन्द्र प्रधान या कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल, अनूप मिश्रा, फग्गन सिंह कुलस्ते, सत्यनारायण जटिया या अन्य नामचीन नेता ?
वहीं कांग्रेस में ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अजय सिंह, अरुण यादव, जीतू पटवारी, राजमणि पटेल और अन्य छोटे बड़े नेता अपने अपने स्तर पर अलग अलग क्षेत्रों में चुनावी कमान संभाले हुए हैं। पहली बार कांग्रेस में “एक नेता” या “मुख्यमंत्री” का सवाल का हावी नहीं है।
पिछले तेरह सालों में शिवराज आख़िर इतने अकेले क्यों पड़ गये….पता नहीं क्यों मुझे 2003 के दिग्विजय सिंह याद आ रहे हैं जो इसी तरह तब अकेले पड़ गये थे।
इतिहास खुद को दोहराता है !
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और द वीक पत्रिका के मध्यप्रदेश ब्यूरो हैं।
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