विनोद नागर।
अंग्रेजी भाषा में इंडिया की स्पैलिंग के पंचाक्षरों को नये आयाम देते हुए बेंगलुरु में विपक्षी एकजुटता के लिए जुटे नेताओं ने चुनावी गठबंधन की राजनीति का जो नया पैंतरा अपनाया है, वह अगले साल कितने भारतीय मतदाताओं के समर्थन को वोटों में तब्दील कर पायेगा?
यह तो उपयुक्त समय पर ईवीएम ही बताएँगी।
इसमें कोई शक नहीं कि 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में सम्पन्न दूसरी एकता बैठक से विपक्षी खेमे का कुनबा अवश्य बढ़ा है और कुर्सियाँ नज़दीक आईं हैं।
26 राजनीतिक दलों के एक साथ बैठ जाने से फिलहाल केवल गठबंधन का नाम ही तय हो सका है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यूपीए का नाम बदलकर इंडिया कर दिये जाने से गठबंधन का चेहरा कितना बदलता है।
अरसे तक सोनिया गाँधी यूपीए की चेयरपर्सन रहीं तो इंडिया के चेयरमैन कौन होंगे से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यक्ष प्रश्न के रूप में यही घुमड़ता रहेगा कि 2024 के चुनाव में विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का दावेदार चेहरा कौनसा होगा?
जब यूपीए इतने सालों तक बिना सचिवालय के चल गया, तो इंडिया का सचिवालय ऐसी कौनसी कारकूनी व्यवस्था जुटाने में सक्षम होगा जो भानुमति के कुनबे की रस्सी बन सके।
बेंगलुरु बैठक के समापन पर ग्यारह सदस्यीय समिति गठित करने का एलान भी सर-फुटव्वल और मान-मनौवल के अवसर पैदा करेगा।
समिति के संयोजक का काँटों भरा ताज किसके सिर पर पहनाया जाये? उस मस्तक को चुनना भी टेढ़ी खीर ही होगा, क्योंकि चुनाव में विभिन्न घटक दलों के मध्य सीटों के बँटवारे का दंगल अभी बाकी है।
सबसे पुरानी और राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद सीटों के बँटवारे में सबसे बड़ा त्याग कांग्रेस को ही करना होगा। चुनावी रणक्षेत्र में दुंदुभि बजने और रणबांकुरों के हुँकार भरने तक पता नहीं कितने बादल गरजेंगे और कितने बरसेंगे?
मुम्बई में होने वाली अगली बैठक में फिर मिलने का वादा करके बैठक के बाद मल्लिकार्जुन खरगे की प्रेस कांफ्रेंस से कन्नी काटकर पतली गली से निकल लिये नितीश कुमार के मूड को भाँपने में भी लगे रहे मीडिया वाले।
इधर दिल्ली के लिए टेक ऑफ करने के बाद सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को ले जा रहे विमान की भोपाल में इमरजेंसी लैंडिंग की खबर ने भी बेचैनी फ़ैलाने में कोई कसर न छोड़ी।
बहरहाल, कभी जयपुर तो कभी बेंगलुरु और अब मुम्बई में होने होने वाले विपक्षी जमावड़े की कवायद भाजपा को पुनः सत्ता में आने से रोकने के इरादों में किस हद तक कामयाब होगी? फिलवक्त कहना मुश्किल है। हाँ, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि 2024 के चुनावी समर के लिए 38 दलों वाले सत्तारूढ़ एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) का रोचक मुकाबला फीके पड़ चुके यूपीए की जगह नये चटखदार रंग वाले ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) से होगा।
क्या आगामी लोकसभा चुनाव में वाकई भाजपा को परास्त कर ‘इंडिया’ जीतेगा? यह टीवी चैनलों की चीखती चिल्लाती बहस (?) का मुद्दा भले ही हो सकता है, पर असल में ‘नेशन वांट्स टू नो’ कि आखिर सत्ता में भागीदारी के लिए हर राजनीतिक पार्टी इतनी लालायित क्यों है?
सत्ता परिवर्तन से आख़िर क्या हासिल होता है उन्हें और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भरोसा करनेवाले देश के नागरिकों को..!
आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए पिछले 75 सालों में लोग इतना तो अच्छे से जान भी चुके हैं और समझ भी चुके हैं।
अस्तु, लगे हाथ इसे चुनावी शंखनाद मानने में हर्ज ही क्या है। क्या ठीक इसी दिन नई दिल्ली में पच्चीस साल पुराने एनडीए के 38 घटक दलों की बैठक आयोजित होना महज एक संयोग है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है
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