प्रकाश भटनागर।
मरहूम अली सरदार जाफरी की 'मेरा सफर' एक बेजोड़ रचना है। घोर निराशा से चरम वाले आशावाद को इसमें बेहद खूबसूरती से पिरोया गया है। इसके अंत में वह लिखते हैं, '...माजी (अतीत) की सुराही के दिल से, मुस्तकबिल (भविष्य) के पयमाने में। मैं सोता हूं और जागता हूं, और जागके फिर सो जाता हूं। सदियों का पुराना खेल हूं मैं, मैं मर के अमर हो जाता हूं।'
क्या सचमुच ऐसा हो सकता है? जवाब न तो 'कतई नहीं' में दिया जा सकता है और न ही 'यकीनन' में। तो फिर शिवराज सिंह चौहान के चरम आशावाद (तेरह वर्ष का मुख्यमंत्रित्वकाल) से लेकर 11 दिसंबर, 2018 के बाद दिख रहे निराशावाद के बीच उनके भविष्य की क्या कल्पना की जाए? उनके पंख तो कतर दिए गए हैं।
सच कहें तो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का पद देना और मार्गदर्शक मंडल नामक वृद्धाश्रम में भेजने के बीच बहुत महीन अंतर ही होता है। तो, कयासबाजी का सारा खेल इस बात पर आकर रुक जाता है कि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद के शिवराज सिंह चौहान, जाफरी की ऊपर बताई गई नज्म के खांचे में फिट बैठ पायेंगे या नहीं।
दिल्ली जाने से पहले शिवराज ने नए साल के मौके पर पत्रकारों को भोजन दिया। कुछ सवालों के जवाब में 'जिंदा टाइगर' ने कुछ कमजोर स्वर में कहा कि नेता प्रतिपक्ष के लिए तो मैंने मना कर दिया है लेकिन लोकसभा चुनाव में महत्वपूर्ण जवाबदारी निभाऊंगा। अब उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया गया है तो सवाल यह उठता है कि क्या वे अब राष्ट्रीय स्तर से मध्यप्रदेश पर फोकस करेंगे। फोकस की रोशनी के ठीक नीचे अगला आम चुनाव दिख रहा है। इसमें क्या होगा?
यह तो कम से कम नहीं ही होता दिखता है कि शिवराज की राज्य से प्रत्याशी चयन में अहम भूमिका रहेगी। बावजूद इस तथ्य के कि पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य हैं, प्रदेश चुनाव समिति में भी वे मौजूद रहेंगे। लेकिन यह चुनाव तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरों को सामने रखकर लड़ा जाना है। प्रदेश में लगातार चौथी बार भाजपा की सरकार बन गई होती तो मोदी और शाह के साथ ही शिवराज का चेहरा भी यहां तिकड़ी के तौर पर चमकता दिखता। इसके अवसर मतदाता ने खत्म कर दिए हैं। इसलिए यह संभावना भी धूमिल हो चुकी है कि प्रदेश में धुआंधार प्रचार का जिम्मा उनके कंधे पर आ जाए।
आज के हालात में दिखता यही है कि शिवराज को विदिशा जैसी भाजपा के लिए निरापद किसी सीट से टिकट मिल जाए। यानी होता यही दिख रहा है कि तेरह साल के मुख्यमंत्री को सांसद के तौर पर केंद्रीय स्तर की राजनीति में एक बार फिर शुरूआत करनी पड़े।
माजी की सुराही के दिल में झांके तो वहां शिवराज के लिए प्रबल राजयोग और उसकी समाप्ति के अध्याय दिखते हैं। भविष्य में उनके लिए उम्मीद की बहुत टिमटिमाती रोशनी ही दिखती है। लेकिन शिवराज के आत्मविश्वास को देखकर भान होता है कि वह '...अमर हो जाता हूं' के विश्वास से लबरेज हैं। ऐसा विश्वास होना आत्ममुग्धता की निशानी नहीं कहा जा सकता। लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार के लिए आसार ठीक नहीं दिख रहे।
विपक्षी महागठबंधन का दांव सही पड़ा तो छप्पन इंच का सीना महज पांच साल में अतीत की बात हो जाएगा। ऐसा हुआ तो शिवराज को ताकत मिलेगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ तो 'जाग के फिर सो जाता हूं' वाली पंक्ति तो जाफरी लिख ही गये हैं। हां, एक बात और बता दें। जाफरी ने इसी नज्म में एक जगह लिखा है, 'हर चीज भुला दी जाएगी, यादों के हसीं बुतखाने (मंदिर) से, हर चीज उठा दी जाएगी।
फिर कोई नहीं ये पूछेगा, सरदार कहां है महफिल में?' यह शिवराज के लिए हमारी अपेक्षा नहीं है, लेकिन सियासत में 'विपरीत समय' किसी भी दशा से साक्षात्कार करवा सकता है। फिर शिवराज को तो भाजपा में वीरेंद्र कुमार सखलेचा, उमा भारती सहित लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी तथा जसवंत सिंह आदि-आदि का उदाहरण याद होगा ही। नहीं?
लेखक एलएन स्टार समाचार पत्र में प्रधान संपादक हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।
Comments