हेमंत कुमार झा।
तेजस्वी यादव बिहार की उम्मीद बन कर उभरे हैं।
नेता से जितनी उम्मीदें जुड़ती जाती हैं उसका समर्थन आधार उतना ही व्यापक होता जाता है। किसी नेता को 'बड़ा नेता' बनाने में इन उम्मीदों का बड़ा हाथ होता है।
अपने चारों ओर नजरें दौड़ाइए। देश के सर्वाधिक बेरोजगारों वाले राज्य बिहार के पढ़े लिखे युवाओं की आंखों में उम्मीद की एक चमक आपको दिखेगी क्योंकि तेजस्वी यादव सत्ता में आ गए हैं।
भले ही आज वे उपमुख्यमंत्री हैं, लेकिन जैसी कि चर्चा है, बहुत अधिक वक्त नहीं लगेगा जब वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते दिख सकते हैं।
वे युवा हैं और इस राज्य के युवाओं की उम्मीदों के केंद्र भी। यह एक विलक्षण संयोग है। अब यह उन पर निर्भर है कि वे इस संयोग को कितनी सार्थकता देते हैं।
2020 के विधान सभा चुनावों में 10 लाख सरकारी नौकरी के उनके वादे ने अचानक से माहौल ही बदल दिया था और जातीय पूर्वाग्रहों, जो बिहार की राजनीति में एक प्रभावी तत्व रहा है, से ऊपर उठ कर लाखों युवा उनके समर्थन में आ गए थे।
उनकी चुनावी रैलियों की भारी भीड़ इस तथ्य की तस्दीक करती थी कि जनता के वास्तविक हितों की बात करने वाले नेता के लिए जनता जाति धर्म की दीवारों को तोड़ कर समर्थन देती है।
वह तो सीमांचल में ओवैसी का रहस्यपूर्ण दखल था कि तेजस्वी कुछ सीटें अधिक पाने से चूक गए वरना उसी समय वे सत्ता में आ चुके होते।
ओवैसी और भाजपा के रिश्तों को गहरे संदेह की नजरों से यूं ही नहीं देखा जाता।
बहरहाल, यह सब भी राजनीति में होता ही है। इसमें मोहरे भी होते हैं, मुखौटे भी होते हैं और उन सबकी अपनी भूमिकाएं भी होती हैं जो कभी कभी निर्णायक साबित हो जाती हैं।
शपथ ग्रहण के बाद कई चैनलों पर तेजस्वी यादव के साक्षात्कार दिखाए जा रहे हैं जिनमें वे बेहद सुलझे हुए और असरदार तरीके से अपनी बातें रखते दिखते हैं।
उनके सामने कई चुनौतियां हैं। एक चुनौती तो उनका स्वयं का परिवार ही है जिसके एकाधिक सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं।
इनसे किस तरह संतुलन बना कर वे चल पाते हैं, यह भविष्य बताएगा। यह संतुलन-असंतुलन उनकी राह को प्रशस्त करेगा या कंटकाकीर्ण बनाएगा।
उन्होंने कहा, "सामाजिक न्याय के बाद अब आर्थिक न्याय की जरूरत है।" उनका यह वक्तव्य उनके विजनरी होने की झलक देता है।
हालांकि, उन्हें स्पष्ट करना होगा कि आर्थिक न्याय की उनकी परिभाषा क्या है।
और उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा कि सामाजिक न्याय का आंदोलन कितनी दूर तक पहुंचा है जिसे अब आर्थिक न्याय के अभियान में बदलने की उनकी आकांक्षा है।
निजीकरण आधारित आर्थिक नीतियों ने सामाजिक न्याय के आंदोलन को किस तरह प्रभावित किया है यह सहज ही देखा-समझा जा सकता है।
सामाजिक तौर पर हाशिए के लोगों और आर्थिक रूप से विपन्न वर्गों में से ही महानगरों में श्रमिकों की आपूर्ति होती है।
इन श्रमिकों के अधिकारों के लिए अगर नए सिरे से नई ऊर्जा के साथ लड़ाई न छेड़ी जाए तो न सामाजिक न्याय का सपना पूरा होगा न आर्थिक न्याय की ओर कदम बढ़ाया जा सकेगा।
बिहार श्रमिक आपूर्ति का सबसे बड़ा स्रोत है इसलिए बिहार के नेता को इस संदर्भ में अपना वैचारिक आधार स्पष्ट करना होगा।
तेजस्वी यादव जिस सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात करते हैं उसकी जड़ों में मट्ठा डालने के लिए कारपोरेट संपोषित सत्ता-संरचना नई शिक्षा नीति लाई है।
सामाजिक संदर्भों में अगर नई शिक्षा नीति के प्रावधानों का विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट होता है कि यह सामाजिक और आर्थिक अन्याय को बढ़ावा देने वाली है।
शिक्षा का 'कारपोरेटाइजेशन' हाशिए पर के लोगों को विकास की मुख्यधारा से और अधिक दूर करेगा और अंततः एक ऐसे समाज का निर्माण करेगा जिसमें हर तरह की गैर बराबरी बढ़ती ही जाएगी।
तेजस्वी जैसे नेता को, जिन्होंने वर्तमान सत्ता राजनीति में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा दी है और तय है कि भविष्य की राजनीति में भी लंबे समय तक एक धुरी बन कर रह सकते हैं, इन मुद्दों पर अपनी राय स्पष्ट करनी होगी।
इसलिए भी कि उनकी जड़ें बिहार में है जिसकी तीन चौथाई आबादी आर्थिक अन्याय के शिकार लोगों की है।
जब तक कोई नेता आर्थिक नीतियों पर अपनी राय स्पष्ट नहीं करता, इन नीतियों के संदर्भ में अपनी भावी योजनाओं को लेकर स्पष्ट नहीं होता, तब तक वह आर्थिक न्याय की बात नहीं कर सकता।
तेजस्वी यादव ने अगर आर्थिक न्याय की बात उठाई है तो उम्मीद की जा सकती है कि उनके जेहन में देश में संचालित हो रहीं आर्थिक नीतियां जरूर होंगी।
हमने उन्हें अंधनिजीकरण के खिलाफ यदा-कदा जुबानी जंग से अधिक कुछ और करते नहीं देखा है अब तक।
निजीकरण कुछ क्षेत्रों या कुछ मायनों में वक्त की जरूरत हो सकता है लेकिन अंधनिजीकरण सामाजिक और आर्थिक न्याय की भ्रूणहत्या करता है।
भविष्य को अपनी पलकों में संजोए किसी युवा राजनेता को इन मुद्दों पर स्पष्ट और मुखर होना ही होगा।
खास कर तब अधिक, जब वह तेजस्वी यादव हो जिसकी ओर कुपोषित, अर्द्धशिक्षित, बेरोजगार युवाओं की उम्मीद भरी नजरें टिकी हों।
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