राकेश कायस्थ।
विशेषणों का इस्तेमाल आजकल कुछ इस तरह होने लगा है कि वे अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। इसके बावजूद मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि लोकसभा में दिया गया राहुल गाँधी का भाषण सही मायने में ऐतिहासिक था।
मुझे याद नहीं है कि चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मैंने कब किसी नेता का संसद में दिया गया पूरा भाषण कब सुना हो। हाँ वो प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल का पहला भाषण था।
43 मिनट का धाराप्रवाह भाषण, तार्किकता, तथ्य, आक्रमकता, साहस और दृष्टि संपन्नता। आज का भाषण राहुल गाँधी को अपने समकालीनों से एकदम अलग खड़ा कर गया।
कांग्रेस पार्टी पिछले सात साल में जिस तरह चली है, मैं उसका कटु आलोचक हूँ।
हाल ही में एक लंबे पोस्ट में मैंने कांग्रेस की मौजूदा स्थिति के लिए गाँधी-नेहरू परिवार के मौजूदा प्रतिनिधियों को ज़िम्मेदार ठहराया था।
शिकायत अब भी वही है। लेकिन इस बात से कोई कैसे इनकार कर सकता है कि राहुल गाँधी के पास साहस और समझ दोनों हैं। क्या वे नहीं जानते कि इस देश में चुनाव कॉरपोरेट फ़ंडिंग के बिना नहीं जीते हैं।
इसके बावजूद अगर उन्होंने लोकसभा में अंबानी का नाम लिया और गहरी हुई आर्थिक असमानता का ज़िक्र छेड़ा तो इसका एक ही मतलब है कि राहुल इस देश की ताकतवर कॉरपोरेट लॉबी से टकराने को तैयार हैं।
भाषण बजट पर था और राहुल गाँधी ने हर वो बात कही जो किसी राष्ट्रीय नेता को कहना चाहिए। लेकिन सवाल अब भी वहीं खड़ा है। जिस धारदार और तीखी शैली में राहुल ने संसद के माध्यम से देश के साथ संवाद किया, वैसा प्रभाव वो जनसभाओं में क्यों नहीं छोड़ पाते हैं?
राहुल ने जो मुद्दे उठाये हैं, अगर उन्हें आगे लेकर जाते हैं, तो इससे देश का भला ज़रूर होगा। मैं हमेशा से ये मानता आया हूँ कि चुनावी राजनीति के तिकड़म राहुल के बस के नहीं है। संगठन का काम कुछ विश्वस्त लोगों पर छोड़कर उन्हें उन मुद्दों पर भिड़ना चाहिए जो आज देश के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं।
Comments