राकेश दुबे।
भारतीय जनता पार्टी नीत राजग से अलग होकर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने बिहार में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का पल्ला थामते हुए जो आरोप लगाये उन पर क्या कहा जाये सलझ से परे है।
उनका एक प्रमुख आरोप है कि राजग में उनका अपमान हो रहा था। अगर सचमुच वहां उनका अपमान हो रहा था तो फिर वह साढ़े चार साल तक राजग सरकार में मंत्री क्यों बने रहे? क्या इसलिए कि राजग छोड़ने के लिए कोई शुभ मुहूर्त नहीं मिल रहा था?
आखिर यह सच्चाई किससे छिप सकती है कि बिहार में उन्हें जब वांछित सीटें मिलने की उम्मीद नहीं रही तो उन्हें अपना तथाकथित अपमान याद आ गया?
वैसे कुशवाहा ने अवसरवादी राजनीति का कोई नया उदाहरण पेश नहीं किया है। ऐसे उदाहरण पहले भी सामने आते रहे हैं और इसके सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आगे भी उनके जैसे 'मौसमी नेता” देखने को मिलेंगे।
चुनाव के वक्त आयाराम-गयाराम का सिलसिला तेज हो जाता है। नि:संदेह इसके लिए केवल नेताओं को ही दोष नहीं दिया जा सकता,क्योंकि आखिरकार यह जनता ही है जो जाति, पंथ, क्षेत्र के नाम पर राजनीति करने वालों के पीछे खड़ी होती है।
यदि जनता ऐसे नेताओं को खारिज करने लगे तो जाति, पंथ के नाम पर राजनीति करने वालों के दिन आसानी से लद सकते हैं। समाज को बांटने वाली इस राजनीति को खारिज करने में राजनीतिक दल भी सहायक बन सकते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि वे भी जातिवादी राजनीति की अनदेखी नहीं कर पाते।
इससे बड़ी विडंबना यह है कि भिन्न्-भिन्न जातियों की गोलबंदी को अब जातीय ध्रुवीकरण के बजाय सोशल इंजीनियरिंग कहा जाने लगा है। अगर अलग-अलग जातियों के नाम पर होने वाली राजनीति इसी तरह फलती-फूलती रही तो फिर जातिवाद की जड़ें और मजबूत ही होंगी।
बिहार में कुशवाहा समाज के हितैषी बनकर उपेन्द्र राजनीति करते रहे हैं, वैसे ही कई राज्यों में कई अन्य नेता भी कर रहे हैं।
सच तो यह है कि बीते कुछ समय से जाति को गोलबंद करके राजनीति करने वालों की संख्या बढ़ी है। यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक जनता यह समझने के लिए तैयार नहीं होगी कि जात-पांत के नाम पर राजनीति करने वाले अपना उल्लू सीधा करने के अलावा और कुछ नहीं करते।
उन्हें जहां सत्ता की मलाई दिखती है, किसी न किसी बहाने उसी तरफ कूच कर जाते है, जैसे उपेंद्र कुशवाहा कर गए हैं। ऐसा करते समय उनकी ओर से तरह-तरह के बहाने गढ़ लिए जाते हैं। कभी देश बचाने का दावा किया जाता है तो कभी संविधान बचाने का।
हालांकि बिहार में उपेंद्र कुशवाहा के विधायकों ने भी उनका साथ छोड़ दिया है, लेकिन कांग्रेस ने अपने मंच पर उनकी नुमाइश इसलिए की, ताकि देश की जनता को यह संदेश दिया जा सके कि उसके नेतृत्व में विपक्षी एकता मजबूत हो रही है।
यह वक्त ही बताएगा कि उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन का हिस्सा बनने से उसे कितनी मजबूती मिलेगी,लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उनके जैसे नेता न तो अपने उस समाज का भला कर सकते हैं, जिनका नेतृत्व करने का दावा करते हैं और न ही राजनीति को कोई दिशा दे सकते हैं।
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