प्रकाश भटनागर।
जाहिर है भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए पार्टी की अपने गढ़ों में यह खामोशी खलने वाली है। उन मतदाताओं के लिए भी जो भोपाल तथा इंदौर लोकसभा सीट को बीते तीस साल में भाजपा के गढ़ में तब्दील कर चुके हैं।
यह खेलने वाली खामोशी है, उस भाजपा के लिए, जो इन क्षेत्रों को लेकर पहले सतर्क दिखी, फिर सशंकित और अब तो उसकी चुप्पी डर से काठ मार जाने के सदृश महसूस होने लगी है।
दो सवाल उठते हैं। क्या वजह है कि भाजपा भोपाल से मौजूदा सांसद आलोक संजर को ही फिर प्रत्याशी घोषित नहीं कर रही? संजर लोकप्रिय हैं। बेदाग हैं। मतदाताओं के लिए सर्वदा सहज रूप से उपलब्ध हैं।
फिर, शिवराज सिंह चौहान यहां से चुनाव लड़ने की अनिच्छा जता चुके हैं। उमा भारती ने तो काफी पहले ही इस लोकसभा चुनाव को लड़ने से मना कर दिया था। जाहिर है पार्टी में उनकी कहीं कोई बात हुई होगी जिसके चलते उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बनाया गया।
नरेंद्र सिंह तोमर पहले ही ग्वालियर से मुरैना कूच कर गये हैं। कैलाश जोशी की उम्र तो न अब पार्टी के मापदंडों पर न ही शरीर के स्तर पर उन्हें सियासी अखाड़े में ताल ठोंकने की अनुमति देती है। साध्वी प्रज्ञा सिंह को यहां उतारकर भाजपा कट्टर हिंदुत्व चेहरा उतारना चाहती तो इस साध्वी ने चुनाव लड़ने की इच्छा जता ही दी है।
दो तीन दिन पहले भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजेश लूनावत का नाम चर्चा में आया। विजेश की पहचान भी पार्टी में प्रबंधन के उस्ताद जैसी है। शुक्रवार को फिर उमा भारती का नाम आया। क्या उमा भारती का नाम पार्टी के ही किसी नेता पर दबाव बनाने के लिए है?
जाहिर है यह नेता शिवराज ही हो सकते हैं? राज्य के मोह में बंधे शिवराज शायद राजी हो जाएं। इनके अलावा और कोई नाम चर्चा में आ नहीं रहा। एक सज्जन कमल छाप सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं। उन्होंने तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को फेसबुकिया बुलावा भेजा है कि वह इस सीट से चुनाव लड़ लें।
भाजपा यह समझ ही नहीं रही कि इस भ्रम एवं विलंब के चलते उसने खुद-ब-खुद दिग्विजय सिंह का कद कितना बढ़ा दिया है। प्रत्याशी की घोषणा की प्रतीक्षा में गुजर रहा एक-एक दिन यह संदेश प्रसारित कर रहा है कि दिग्विजय सिंह की भारी ताकत के चलते भाजपा को उनके मुकाबले का नेता ही नहीं मिल पा रहा है।
तिस पर मोदी को यहां से चुनाव लड़ाने की सलाह देकर भाजपा के समर्थक भी विकट मूर्खता का परिचय दे रहे हैं। उनकी इस पोस्ट से तो यही प्रतीत होता है कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को हराने की ताकत यदि किसी के पास है तो वह सिर्फ और सिर्फ मोदी ही हैं। यह उस सीट का हाल है, जहां तीन दशक से लगातार कमल खिलता रहा और जहां कमल की पंखुड़ियां बीते 19 दिन से ऐसी बंद पड़ी हैं कि मामला समझ से परे हो गया है।
इंदौर में तो और विचित्र स्थिति है। ताई ने तीस साल लगातार सांसद पद संभाला। जब उन्हें रिटायर किया गया, तब एकबारगी लगा था कि संभवत: महाजन का विकल्प तलाश लिया गया है। लेकिन अब तक तो ऐसा होता नहीं दिख रहा।
यदि भाजपा यह दलील देती है कि वह कांग्रेस प्रत्याशी के नाम का इंतजार कर रही है तो इस दल के लिए यह शर्मनाक तथ्य ही होगा। क्योंकि यह जता देगा कि इंदौर में सन 1989 से बीते चुनाव तक भाजपा नहीं, सुमित्रा महाजन जीती थीं।
क्योंकि पार्टी दमदार होती तो महाजन के चुनाव न लड़ने की घोषणा के तुरंत बाद भाजपा का नया प्रत्याशी घोषित कर दिया जाना तय था। सुमित्रा महाजन ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि पार्टी उन्हें लेकर ऊहापोह में है तो वे चुनाव से दूर हो जाती है, जिसे चाहे पार्टी उम्मीदवार बनाए। लेकिन इस बात को बीते भी सप्ताह भर से ज्यादा हो गया।
जब दो गढ़ में पार्टी का यह आलम है तो कल्पना की जा सकती है कि यह दल कितने डर और किस मनोबल के साथ इस चुनाव में उतरा है। यह उस मध्यप्रदेश के हालात हैं जहां पार्टी का संगठन सबसे मजबूत माना जाता है।
यदि राहुल गांधी का अमेठी के साथ-साथ वायनाड से भी पर्चा भरना हार के डर का प्रतीक है तो इंदौर और भोपाल जैसे भाजपा के आचरण भी पराजय के खौफ के अलावा और कुछ नहीं कहे जा सकते हैं।
यह उस मतदाता की सोच के प्रति इस पार्टी का संदेह है, जिसने आंख मूंदकर भोपाल से सुशील चंद्र वर्मा सहित उमा भारती, कैलाश जोशी और आलोक संजर को चुना।
जिसने इंदौर में 1989 से लेकर सन 2014 तक सुमित्रा महाजन के अलावा और किसी को अपने सांसद पद के काबिल समझा ही नहीं।
यकीनन भाजपाई दिग्गज अपनी इस चुप्पी को किसी रणनीति की संज्ञा दे सकते हैं, लेकिन यह खुद को बहलाने के अलावा और कुछ नहीं है।
यह अपने डर को ढंकने का वही खेल है, जिसका आरंभ में जिक्र किया गया था।
Comments