हेमंत कुमार झा।
"पोस्ट-मोदी पॉलिटिक्स" का स्वरूप कैसा होगा? अब यह सवाल भी प्रासंगिक बन कर सामने आ रहा है क्योंकि, अपनी राजनीतिक शैली और आर्थिक नीतियों से नरेंद्र मोदी जो रेखा खींच रहे हैं उससे बड़ी रेखा खींच पाना भारतीय संदर्भों में आसान नहीं है।
सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी से भी आगे बढ़ कर कोई राजनेता कारपोरेट हितैषी नीतियों पर चलता रह सकता है और अपनी जय जयकार भी करवाता रह सकता है?
जो रेखा खींची जा रही है, क्या उससे भी बड़ी रेखा खींच पाना अब संभव रह गया है? अगर नहीं, तो फिर...उत्तर-मोदी दौर में भारतीय राजनीति वैचारिकता के ऐसे चौराहे पर खड़ी होने वाली है जहां से कई रास्ते निकलेंगे।
2024 आते-आते, जैसा कि लग रहा है, देश का कोई भी सार्वजनिक उपक्रम शायद ही कारपोरेट के शिकंजे से बच पाए। जब लाभ कमाने वाली सशक्त कंपनी एलआईसी तक की हिस्सेदारी बेचने की बातें हो रही हों, खण्ड-खण्ड में रेलवे के निजीकरण की योजनाएं साकार रूप ले रही हों, एक-एक कर तमाम बड़े और लाभकारी हवाई अड्डों की बोलियां लग रही हों, कभी देश की आर्थिक सेहत के सबसे मजबूत आधार रहे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक रुग्ण होकर निजीकरण के मुहाने पर आ खड़े हों, रक्षा-उत्पादन की सफल सार्वजनिक इकाइयों की कीमत पर निजी क्षेत्र को रक्षा क्षेत्र में मैदान सौंपा जा रहा हो...तो आने वाले दौर का नेता क्या करेगा, वह किन रास्तों पर चल कर देश को आगे बढाने की बातें करेगा? क्या वह नरेंद्र मोदी का राजनीतिक अनुगामी होगा? क्या वह उन्हीं की नीतियों को और आगे बढाने की बातें करेगा या देश के लिये नई राह का अन्वेषक होगा?
नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक अवसान तक पहुंचते-पहुंचते देश को ऐसी स्थिति में छोड़ कर जाने वाले हैं जहां "मोदी डॉक्ट्रिन" पर आधारित पॉलिटिक्स के लिये अधिक अवसर नहीं रह जाएंगे।
श्रमिकों, किसानों, व्हाइट कॉलर जॉबधारियों के हितों की कीमत पर कारपोरेट की शक्तियों का सतत हित पोषण और राजनीतिक जमीन की मजबूती के लिये राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक कोलाहलवाद का सफल संधान...व्यावहारिक स्तरों पर मोदी डॉक्ट्रिन को इसी तरह परिभाषित किया जा सकता है।
लेकिन...देश का जो माहौल बनता जा रहा है, पोस्ट-मोदी दौर के नेता के लिये इस राह पर चलते रहना बेहद कठिन होगा। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि वैचारिक तौर पर मोदी के किसी अनुगामी के लिये भारतीय राजनीति में विजय पताका फहराना आसान नहीं होगा, क्योंकि उसकी राजनीतिक जमीन की उर्वरता तब तक कम हो जाने वाली है। जब तक मोदी अपने राजनीतिक अवसान तक पहुंचेंगे, वे इस जमीन के रस को भी सोख चुके होंगे।
तमाम मानकों पर देश के जो हालात बनते जा रहे हैं वे नरेंद्र मोदी के वैचारिक प्रतिरोध में खड़ी शक्तियों के लिए उर्वर जमीन मुहैया करवाते जा रहे हैं। अब यह इन शक्तियों पर निर्भर करता है कि वे अपनी राजनीतिक जमीन की उर्वरता का लाभ किस तरह उठा पाते हैं।
1991 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण को लेकर देश में जो उत्साह का माहौल था, तीसरा दशक बीतते-बीतते वह अब शिथिल पड़ता जा रहा है। देश ने देखा कि मुक्त आर्थिकी के विविध आयाम वैचारिक तौर पर चाहे जितनी आकर्षक तस्वीरें प्रस्तुत करते हों, व्यावहारिक धरातल पर यह नई तरह की गुलामी और शोषण के नए-नए अध्यायों का ही सृजन कर रहे हैं
विश्लेषक यह भी बता रहे हैं कि देश के व्यापक आर्थिक सन्दर्भों में भी ऐसी नीतियों ने कोई उत्साहजनक परिणाम हासिल नहीं किये हैं। कंगूरों की चमक-दमक के बीच तलहटी में पसरते अंधेरे सघन ही होते जा रहे हैं। भले ही अंबानी-अडानी जैसे अग्रणी कारपोरेट प्रभुओं की सम्पत्ति में बेहिंसाब इज़ाफ़ा होता जा रहा हो, अरबपतियों की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही हो, लेकिन, आमलोगों की वास्तविक क्रय शक्ति में इज़ाफ़ा होने के बजाय अब एक ठहराव आता जा रहा है। ऐसा ठहराव, जो आर्थिक मंदी को आमन्त्रित करने वाला है।
लगभग पूरी दुनिया इस मंदी से दो-चार है। बाजार गतिशील होने की जगह गतिहीनता को प्राप्त होते जा रहे हैं और पूंजी की प्रचुरता के बावजूद उत्पादन की मात्रा पर ग्रहण लगता जा रहा है, क्योंकि, उपभोग की वास्तविक मांग उतनी नहीं जितनी पूंजी है, जितना उत्पादन है।
भारत भी उत्पादन और मांग के इस अंतर्विरोध का शिकार है। नोटबन्दी और कोरोना संकट के दौरान अफरातफरी भरे सरकारी निर्णयों ने इस अंतर्विरोध को और ज्यादा गहरा किया है।
तो...नरेंद्र मोदी के बाद की राजनीति उन्हीं के पदचिह्नों पर चलती रह सके, इसमें गम्भीर संशय है। नरसिंह राव, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी, मनमोहन के दौर से गुजरते और नरेंद्र मोदी तक आते-आते भारतीय अर्थजगत 'क्रोनी कैपिटलिज्म' का और उसकी दुरभिसंधियों और दुष्प्रभावों का सटीक उदाहरण बन चुका है। कह सकते हैं कि मोदी युग में यह अपने चरम पर पहुंच चुका है क्योंकि इसके बाद तो...अगर इसी तरह और इसी राह चलते रहे...बर्बादी के मंजर के सिवा और कुछ नजर ही नहीं आ रहा।
अगले कुछ वर्षों में, जब मोदी दौर अपने अवसान के समीप होगा, इस देश के सामने नई राहों के अन्वेषण के सिवा कोई और विकल्प नहीं रह जाने वाला है। अंध निजीकरण सवालों के गहरे घेरों में होगा और राष्ट्रवाद, संस्कृतिवाद आदि के बहाने इतनी राजनीतिक विद्रूपता सामने आ चुकी रहेगी कि जलते सवालों के बीच ऐसे मुद्दों को प्रासंगिक बनाए रख पाना आसान नहीं रह जाएगा।
संभव है, उत्तर-मोदी युगीन भारत नई तरह की राजनीति, कुछ अलग तरह की...कुछ अधिक सतर्क, कुछ अधिक जन सापेक्ष अर्थनीतियों का अन्वेषण करेगा।
क्या भारत की वैचारिक जमीन इतनी अनुर्वर हो चुकी है कि नई राहों का अन्वेषण हो ही नहीं सके? क्या अप्रत्यक्ष जकड़ इतनी मजबूत है कि राजनीति उनकी पकड़ ढीली ही न कर सके?
नहीं, ऐसा लगता तो नहीं। नई राहों की तलाश करनी ही होगी, नए विचारों को परखना ही होगा। आने वाले दौर के नेताओं के लिये नई राह, नए विचार ही जन स्वीकार्यता पाने के पैमाने होंगे। तमाम तरह की नकारात्मकताओं से भरे मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स की आयु बहुत लंबी हो ही नहीं सकती। इसका अवसान नए दौर ही नहीं, नए विचारों का भी रास्ता खोलेगा।
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