प्रकाश भटनागर।
सबसे पहले तो यह गुजारिश कि इसे ‘कांग्रेस के भीतर संकट/घमासान’ जैसी संज्ञा न दी जाए। क्योंकि यह घोर प्रतिकूल हालात के बीच सफलता पाने की खोज का जीवट है। इस बात को सराहा जाना चाहिए। राहुल गांधी शायद पहली बार इतनी ईमानदारी से पार्टी की दशा और दिशा पर चिंतन कर रहे हैं। वह अपने दल को उस प्रजातांत्रिक स्वरूप में फिर लाने के लिए प्रयासरत हैं, जो आपातकाल के बाद कहीं खो गया था।
उस दौर में इंदिरा गांधी चुनौती-विहीन ‘कब्जे’ की फितरत से भरी हुई थीं। इसलिए उन्होंने अघोषित परिपाटी आरम्भ की। राजीव गांधी ने भी उसे निबाहा। मां-बेटे ने अपने-अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद भी अपने पास रखा।
पीवी नरसिंहराव और सीताराम केसरी के बाद सन 1998 से सोनिया गांधी ने अध्यक्ष का पद संभाला। अब वह राहुल गांधी के नाम है। यानी प्रकारांतर से कांग्रेस अध्यक्ष का पद गांधी-नेहरू परिवार की जागीर बनकर रह गया है। राहुल इस चलन को खत्म करना चाहते हैं।
इसे पार्टी के प्रति उनका सच्चा समर्पण कह सकते हैं। क्योंकि वह इस तथ्य को समझ चुके हैं कि पूरी निरपेक्षता के साथ बड़ा बदलाव किए बगैर पार्टी के गुजरे हुए दिन लौटा पाना संभव नहीं है।
एक फंतासी कथा में मुख्य पात्र को बहुत बड़ी टंकी में बंद कर दिया जाता है। उसके भीतर एक पाइप से पानी भरना शुरू होता है। बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है। वह पात्र चुपचाप उसी पाइप के ऊपर बैठकर पानी भरता हुआ देखता है। यह सब पढ़ते हुए तय लगने लगता है कि वह डूबकर मर जाएगा।
किंतु ज्यों ही पानी का स्तर पाइप के मुंह के ऊपर होता है, वह पात्र तेजी से उसी पाइप के भीतर घुसकर सरकते हुए ऊपर आकर बाहर निकल जाता है। उसने पानी के दबाव के कम होने का इंतजार किया। फिर भारी जोखिम लेते हुए बच निकलने का एकमात्र तरीका आजमाया।
सच मानिए राहुल गांधी भी ऐसा ही कर रहे हैं। पार्टी में अपने प्रति उपजे स्नेह के दबाव में वह घुटन महसूस करने लगे दिखते हैं। इसलिए इस दबाव से ही वह बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं। पार्टीजनों को चाहिए कि वह गांधी के त्यागपत्र की पेशकश को स्वीकार कर लें।
वर्तमान में शायद इससे बेहतर कदम और कोई नहीं हो सकता। गांधी पार्टी के लिए बरसों-बरस से बंद नवाचार के रोशनदान फिर खोलना चाहते हैं तो इसमें बुराई क्या है? उन्होंने साफ जता दिया है कि वह प्रियंका वाड्रा को अध्यक्ष बनाना नहीं चाहते। यानी गांधी की मंशा है कि अब इस दल का नेतृत्व कोई ऐसा चेहरा संभाले, जो उनके परिवार से जुड़ा हुआ न हो।
इस कॉलम में पहले भी कहा जा चुका है कि कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार से इतर भी प्रतिभाओं की भरमार है। तो यह सही समय है कि इन प्रतिभाओं में से किसी को मौका दिया जाए।
कहा जा रहा है कि राहुल तीन महीने के लिए और अध्यक्ष बने रहने पर राजी हो गये हैं। तो पार्टी के पास समय है कि वह इस अवधि में किसी सुयोग्य चेहरे की इस पद के लिए तलाश कर ले। यह भी सुनिश्चित कर लिया जाए कि नया चेहरा गांधी से तालमेल बिठाकर चलेगा।
पार्टी को यह बदलाव भी करना चाहिए कि इमरजेंसी के पहले की तरह अध्यक्ष पद का कार्यकाल तय किया जाए। पार्टीजनों को यह समझना होगा कि गांधी की इस्तीफे की पेशकश अध्यक्ष पद से है, पार्टी से नहीं। संभवत: इस चुनाव में बतौर अध्यक्ष अपने सामने आये कई धर्मसंकटों को भांपकर गांधी आगे की पारी खुले हाथ लेकर खेलना चाहते हैं।
क्रिकेट में कप्तान के ऊपर भारी मानसिक दबाव होता है। इस चुनाव में गांधी की दशा भी ऐसी ही रही। वह खेले तो फ्रंट फुट पर, किंतु दबाव के चलते पूरी तरह खुलकर हाथ नहीं चला सके। अब उनकी मंशा बगैर कप्तान बने दनादन बैटिंग करने की है। जिसमें कांग्रेसियों को उनका साथ देना चाहिए।
यह समय कांग्रेस में विचित्र किस्म के अंर्तद्वंद का है। दो पक्ष आमने-सामने हैं। एक खुलकर बोल रहा है। नजर आ रहा है। यह वह पक्ष है, जो राहुल गांधी को मनाने में जुटा हुआ है कि वह इस्तीफा न दें। दूसरा पक्ष चुप है। दिख नहीं रहा। किंतु वह चाहता है कि गांधी को अध्यक्ष पद से हटने दिया जाए।
चाटूकारों और शुभचिंतकों के इस मतभेद में शुभचिंतकों की जीत ही राहुल गांधी के हित में है। पार्टी के पक्ष में है। क्योंकि यही वह समय है, जब इस दल को लंबे समय बाद परिवारवाद की बेड़ी से मुक्त किया जा सकता है।
यह आजादी पार्टी के लिए समय की मांग है। उसके उज्ज्वल भविष्य की दरकार है। यदि यह विचारधारा आज भी जीत गयी कि एक परिवार है तो ही पार्टी है, तो समझ लीजिए कि आने वाले समय में मामला और बिगड़ना तय है।
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