राकेश दुबे।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने एक्जिट पोल पर दार्शनिक अंदाज में प्रतिक्रिया दी है। वे दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं,एक दार्शनिक अद्ध्येता के लिए हार-जीत का मोल एक समान होता है।
वैसे सेफोलाजी गणित का विषय नहीं है, और न ही दर्शन शास्त्र का ज्योतिष की भांति एक अटकल है। लगा तो तीर नहीं तो तुक्का तो है ही। इन चुनावों में जनमत संग्रह की यह विधा फिर कठघरे में हैं।
इनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है ? एक्जिट पोल से अभी खुश कांग्रेस ने, विपरीत स्थिति बचने के लिए ई वी एम में हेराफेरी की चुनाव आयोग को शिकायत भी कर दी है।
मामला नाजायज तौर से भुगतान के बदले सर्वेक्षण के प्रसारण व प्रकाशन से जुड़ा है,इसलिए अपराध के दायरे में आता है। क्योंकि अप्रत्यक्ष तौर से यह कदाचरण मतदताओं को गुमराह करने की दृष्टि से किया जाता है।
पहले भी इस तरह के सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठती रही हैं, किंतु कानूनी पेचदगियों और अभिव्यकित की स्वतंत्रता के बहाने इन्हें जीवनदान मिलता रहा है। निर्वाचन आयोग भी पाबंदी के पक्ष में है।
इन कंपनियों को जवाबदेही के दायरे में लाना जरुरी है। क्योंकि कोई भी यह स्पष्ट नहीं करता कि इनका वास्तविक आधार क्या है, लिए नमूने का क्षेत्र कौनसा है, मंशा जताने वाले मतदाता कौन हैं, किसी भी सर्वे में इसका खुलासा नहीं किया जाता ?
इसीलिए ये अपारदर्शी बने रहते हैं। यही अपारदर्षिता इनकी संदिग्धता की पृष्ठभूमि रचने का काम करती है।
यह भी दल विशेष के पक्ष में हवा बनाने के तरीके ‘पेडन्यूज की भांति ही है। केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग पेडन्यूज को लेकर चिंतित हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में आयोग ने पेडन्यूज पर नकेल कसने का काम किया था, जिसके परिणाम भी सार्थक रहे थे।
यदि पेडन्यूज अपराध है तो धन लेकर चुनावी सर्वेक्षणों के जरिए दल या व्यकित विशेष को महिमामंडित करना, क्या अपराध के दायरे में नहीं आता? यदि इन सर्वेक्षणों पर कानूनी शिकंजा नहीं कसा जाता तो मतदाता के गुमराह होने का सिलसिला जारी रहेगा और निर्वाचन प्रणाली भी दूषित बनी रहेगी।
यह एक चरणबद्ध, सुस्पषट और पारदर्शी जनमत संग्रह मतदाताओं का रुझान जानने का एक संभावित उपाय हो सकता है। ज्यादातर विकसित व लोकतांत्रिक देशों में जनमत का रुझान जानने के लिए कंपनियां सर्वेक्षण करती भी हैं।
इसलिए यह कहना गलत होगा कि सर्वेक्षण व्यर्थ हैं। इनका कोई धरातल ही नहीं है ? ये पूरी तरह अवैज्ञानिक हैं ? अलबत्ता हमारे यहां जनमत संग्रह नैतिक मापदंडों पर इसलिए खरे नहीं उतर रहे हैं, क्योंकि उनका क्रय-विक्रय होने लगा है।
इस पेशे में कुछ बेईमानों ने दखल देकर इसके भरोसे को तोड़ने का काम भी किया है। सर्वे एजेंसियां, मीडिया घराने और राजनीतिक दल का गठजोड़ विश्वसनीय जनमत संग्रह और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए ‘कलंक साबित हो रहे हैं।
जनमत संग्रह ‘सेफोलाजी, चुनाव विश्लेष्ण विषय का हिस्सा हैं। यह गणित का विषय नहीं है, इसलिए इस विज्ञान से आंकड़ों का सटीक अनुमान लगाना मुमकिन नहीं है। यह भारत जैसे सांस्कृतिक, जातीय और संप्रदाय बहुलता वाले देश में इसलिए भी मुश्किल काम है, क्योंकि जाति और समुदायों के जन्मजात संस्कार मतदाता को पूरी तरह पूर्वग्रही मानसिकता से मुक्त नहीं होने देते।
ईमानदारी से भारत में जनमत संग्रह करना इसलिए भी मुश्किल है, क्योंकि यदि इसके नमूने का आकार बड़ा रखा जाता है तो उसका खर्च बहुत बैठता है,जिसे कंपनियां अपने स्तर पर वहन नहीं कर सकती हैं ? इसलिए इन पर सरकारी नियंत्रण हो या ये स्वनियमन की नैतिकता के दायरे में आएं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने जनमत संग्रह खरीद-फरोख्त का आधार आखिर कब तक मतदाताओं को गुमराह करेगा।
Comments