अमेठी से ममता सिंह।
एक छोटे से गांव की छोटी सी लड़की जो शायद चौथी या पाँचवी में पढ़ती थी उसको हर्फों की दुनिया से बेपनाह इश्क़ था। किताबें उसे हमेशा दूसरी दुनिया में पहुँचा देतीं ..वो लड़की सफ़ेद पन्नों पर छपे काले हर्फों की दुनिया में अकेले घूमती..उसे दुनिया जहान की किताबें पढ़ डालने की चाहत थी...उसे चिढ़ थी तो केवल अपनी क्लास की किताबों से...कारण उसको पढ़ के इम्तिहान देना होता था...और लड़की को इम्तिहानों से डर लगता...
वो पढ़ना चाहती थी उन किताबों को जिन्हें पढ़कर इम्तिहान न देना हो....वो अपने बड़े भाई-बहन की किताबें पढ़ जाती बिना अर्थ,भाव समझे...माँ-चाची की सुखसागर,विश्रामसागर,राधेश्याम पढ़ जाती...बस न पढ़ती तो अपनी कोर्स की किताब।
लड़की के बड़े भैया नवोदय विद्यालय में पढ़ते थे,वो जब छुट्टियों में आते अपनी किताबें लाते...भैया तो खेलने चले जाते और लड़की उनकी किताबें पढ़ने में जुट जाती।भैया सातवीं या आठवीं में रहे होंगे उनकी हिंदी की किताब में लड़की ने एक कविता पढ़ी...हवा हूँ हवा मैं...बसंती हवा हूँ...
ओह कविता पढ़ते ही उस लड़की की सांसें कौतूहल,विस्मय,आश्चर्य,हर्ष से जहाँ की तहाँ रुक गईं.....अरे ये कविता तो उसके लिए लिखी गई है....बस लिखने वाले को उसका नाम ठीक से नहीं पता रहा होगा.........या हो सकता है लिखने वाले ने उसका नाम बसंती हवा ही रख दिया हो...यूँ भी उसको घर में रोज़ नए नए नामों से पुकारा जाता था।
लड़की को पूरा विश्वास था कि ये कविता सिर्फ़ और सिर्फ़ उसके लिए लिखी हुई है नहीं तो भला उसके अलावा और कौन ऐसा है....सुनो बात मेरी..अनोखी हवा हूँ..बड़ी मस्तमौला..नहीं कुछ फ़िकर है..बड़ी ही निड़र हूँ..जिधर चाहती हूँ..उधर घूमती हूँ..मुसाफ़िर अजब हूँ ।
उन दिनों लड़की ख़ूब खुश रहती...मगन रहती...और खुश भी क्यों न हो भला, उसकी हमउम्र सखियों में किसी के लिए तो कविता नहीं लिखी गई...इस बात की तस्दीक सखियों में यूँ भी की गई कि ये कविता उसके भैया की किताब में मिली..किसी के भैया की किताब में ये कविता नहीं थी।
कवि का नाम,गाँव,अर्थ,भाव,विचार उसे कुछ भी नहीं मालूम था...वो हँसती और जोर से कविता गाती...वो गाती फिर हँसती..
उस वक्त ये तय करना मुश्किल हो जाता कि वो ज्यादा जोर से हँसती है या ज़्यादा जोर से गाती है...हँसी जोर से मैं...हँसी सब दिशाएं..हँसे लहलहाते..हरे खेत सारे..हँसी धूप प्यारी।
बीतते वक्त में जाने कितने बसंत आये और चले गए...जाते बसंत ने लड़की को समझा दिया कि लड़की होने और बसंती हवा होने में बहुत फर्क होता है
जहाँ एक ओर बसंती हवा अब भी गाती...न घर बार मेरा..न उद्देश्य मेरा..न इच्छा किसी की..न आशा किसी की..न प्रेमी न दुश्मन..जिधर चाहती हूँ..उधर घूमती हूँ
वहीं दूसरी ओर लड़की रोज़ ब रोज़ सिकुड़ती जाती ...रोज़ नहीं बंदिशें रोज़ नई नसीहतें...उसका ज़ोर से हँसना,इधर उधर बेवज़ह खेत-मेंड़ पर डोलना,चिल्ला चिल्लाकर गाना धीरे-धीरे ख़ामोश मर्सिया में बदलता गया।
अब लड़की समझ गई थी कि ये कविता उसके लिए नहीं थी...यही क्या दुनिया की कोई भी कविता,कोई भी गीत उसके लिए नहीं लिखा गया था उसकी ज़िन्दगी के सफ़हे में तो केवल तन्हाई और ख़ामोशी दर्ज है...वक्त ने उसे सिखा दिया था कि ज्यों ज्यों लड़कियां बड़ी होती जाती हैं,जाने कब-कैसे और क्यों उनके बसंत चुपचाप पतझर में बदलते जाते हैं।
गुज़रते सालों में अब लड़की को ज़िन्दगी के सबक मुंहजबानी याद थे...इम्तिहानों से डरने वाली लड़की को जाने कितने इम्तिहानों से गुजरना पड़ा....इन इम्तिहानों में वो कभी पास हुई तो कभी फेल।
उसकी इच्छाएं-ख़्वाब,दोस्त-दुश्मन,हंसी-आँसू सब बदल गए या यूँ कहें की बदल दिए गए...अब वो हँसती तो लगता रो रही...और कई बार उसके आंसुओं को उसकी हँसी समझ लिया गया।
गुज़श्ता सालों में सब बदला ... नहीं बदला तो बस इतना कि उसे अब भी किताबों से बेपनाह इश्क़ है ,और उम्मीद की कभी न कभी,कहीं न कहीं किसी क़िताब के किसी सफ़हे पर उसके लिए भी कोई गीत ज़रूर दर्ज़ होगा।
वो अभी भी दिल के किसी गोशे में अपने बसंत-पतझर,धूप-नमी सब सहेजे हैं....
ये जानते हुए भी कि ये कविता उसके लिए नहीं लिखी गई है....वो दिल ही दिल में इसे गुनगुनाती है...वो बसन्ती हवा को जोर से अपने फेफड़ों में भरती है...आँखों में ख़ूब ख़ूब सरसों के फ़ूल उगाती है...अलसी-गेंहू-अरहर को सहलाती,दुलराती है
जानते हुए भी कि कच्चे आमों से दांत खट्टे हो जायेंगे और देर तक कुछ न खाया जा सकेगा वो आम के टिकोरों को कुतरती रहती है....महुए के सब्ज़ चिकने पातों का दोना बना ज़िन्दगी को घूँट घूँट पीती है...
और किसी रोज़ मौज़ में आ दिल के कोने-अतरे में छिपी बैठी उस छोटी लड़की के कान में जोर से कूँ भी करती है.....जब छोटी लड़की चौंक के उसकी ज़ानिब देखती है तभी वो ज़ोर से खिलखिला उठती है...उसकी हँसी से शहर,गाँव,बस्ती,नदी,रेत,निर्जन,हरे खेत,पोखर सब हँस पड़ते हैं....बड़ी और छोटी उसी वक्त साथ-साथ गुनगुनाती हैं...हवा हूँ हवा मैं...बसंती हवा हूँ।
और हाँ एक बात और....अब लड़की को बसंती हवा लिखने वाले का नाम,गाँव भी पता है।
केदारनाथ दद्दा इस बसंत उस छोटी लड़की का सलाम क़ुबूल फरमाएं...आपने अपने लिखे से कई साल उसको खुशियों में मुब्तसिम रखा ।
फेसबुक वॉल से। वाया बालेंद्र कुमार परसाई।
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