ममता सिंह।
सुनो.....
मैं तुम्हारी दुनिया जहान की बातें नहीं जानती.....मेरी आँख भर ही मेरी दुनिया है...मेरे लिए जिंदगी का मतलब अपनी माटी में जन्म ले इसी में दफ्न हो जाना भर है........
नहीं समझ पाती की लोग जंग क्यों करते हैं.....क्यों दूर देश को फतह करने की कोशिशों में जिंदगी खत्म कर लेते हैं.....
तुम कहते हो मैं तंग जेहन या तंग नजर हूँ....शायद हूँ पर मैं नहीं समझ पाती कि.....गर हम अपनी माटी....पेड़...पौधे....आबोहवा....धूप..धूल....परिंदे...जानवर .....जमीं ...आसमां को शिद्दत से नहीं चाह सकते हैं तो सारी दुनिया को जीत कर क्या करना ?
मेरी साँसें तो घास के इन नन्हें तिनकों पर ठहरी हैं....सुबह की चमकती शबनम की बूदें मेरे हीरे जवाहरात हैं....इन परिंदों के परों पर मेरे ख्वाब परवाज करते हैं और दरख्तों की फुनगियों पर नन्हें कत्थई पत्तों में मेरा दिल धड़कता है ......मैं इनके बिना नहीं जी सकती.....जहाँ हूँ मैं.....वहां के जर्रे-जर्रे से मुझे बेपनाह इश्क है.....मेरी खिड़की से मेरी दुनिया शुरू होती है और जहाँ सब्ज दरख्तों की कतारें ओझल होती हैं....वहीं खत्म....
तुम बारूद की गंध और लोगों की चीखों से बेखबर जश्न मनाते हो अपनी जीत का......जमीन के टुकड़ों और इंसानी जिस्मों के उड़ते चीथड़ों को तुमने अपने ताज पर टांक लिया....पर मेरे तईं मुहब्बत सिर्फ जमीन...जिस्म या जेवरात को अपने लिए महदूद कर लेने....उसपर कब्ज़ा कर महफूज कर लेना भर नहीं है ।
चाहे शाहबाज़ कलंदर की मजार हो या पेशावर में बच्चों को मारने का खौफनाक मंजर.....मेरे लिए दोनों दुःख-अफ़सोस, शर्म और कायराना करतूतें हैं.....मैं मजहब - सरहद- सियासत में मुहब्बतों को नहीं बाँट सकती....तुम कितनें सुकून से इन खबरों को सुन मुस्कुरा रहे थे कि ये पडोसी मुल्क और गैर मजहबी लोगों की मौत थी....पर मेरी रूह....रो रही थी....मुहब्बत उस रोज पशेमां थी...दर्द था कि जिस्मों - जां से होता हुआ आँखों के रस्ते उमड़ा आ रहा था....
जो मुहब्बत करते हैं वो किसी को तकलीफ क्यों कर पहुंचा सकते हैं...
सो तुम्हारी मुहब्बत और दुनियादारी की बातें मुझे समझ में नहीं आतीं.....जिसमें किसी की मौत इसलिए जश्न का बायस हो कि वो पराये मुल्क के बाशिंदे हैं....मेरे तईंं तो मौत - मौत होती है......वो चाहे ख्वाब की मौत हो या इंसानों की ......
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