राजकुमार जैन!
भोपाल, झीलों और हरियाली के इस खूबसूरत शहर की पहचान सिर्फ उसकी प्राकृतिक सुंदरता से नहीं, बल्कि उसकी सभ्यता, अनुशासन और जागरूकता से भी जुड़नी चाहिए।
प्रदेश की राजधानी होने के नाते भोपाल में भेल, सरकारी संस्थान, महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यालय, विश्वविद्यालय, रेलवे, आदि संस्थानों में काम करने वालों के आवागमन के कारण लाखों वाहन प्रतिदिन शहर की सड़कों पर दौड़ते हैं। पर अफसोस, यातायात व्यवस्था अनुशासन से अधिक अव्यवस्था की प्रतीक बनी हुई है।
फ्लाईओवर बन रहे हैं, स्मार्ट सिग्नल लग रहे हैं, ट्रैफिक कैमरे चौबीसों घंटे निगरानी कर रहे हैं, नगर निगम और पुलिस मिलकर अभियान चला रहे हैं, लेकिन सड़कें फिर भी सुरक्षित नहीं हैं। ट्रैफिक जाम, दुर्घटनाएँ और नियम उल्लंघन अब आम बात हैं। वजह केवल सिस्टम की कमियाँ नहीं हैं, बल्कि नागरिकों की सोच और आदतों की ढिलाई भी उतनी ही जिम्मेदार है।
भोपाल प्रशासन ने “स्मार्ट सिटी” बनाने की दिशा में काफी निवेश किया है, लेकिन ट्रैफिक में असली "स्मार्टनेस" तब आएगी जब नागरिक खुद इसे अपने जीवन का हिस्सा बनाएंगे। शहर में हर दिन लाखों वाहन सड़कों पर निकलते हैं, पर इनमें से कितने चालक नियमों का पालन करते हैं? कितने लोग सिग्नल पर रुकते हैं, सीट बेल्ट या हेलमेट को सिर्फ औपचारिकता नहीं, सुरक्षा समझते हैं?
हमारे शहर की एक बड़ी समस्या यह है कि ट्रैफिक नियम अब सिर्फ “कानूनी औपचारिकता” बनकर रह गए हैं। लोग जानते सब हैं, पर मानते कम हैं। सिग्नल लाल होते होते कई वाहन आगे बढ़ जाते हैं, रांग साइड चलने वाले खुद को चालाक समझते हैं, और मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना अब एक “नॉर्मल” आदत बन गई है।
यह केवल नियमों का उल्लंघन नहीं, बल्कि सामूहिक गैरजिम्मेदारी का प्रतीक है। सबसे खतरनाक यह है कि अब समाज में इसे गलत भी नहीं माना जाता। उलटे, जो व्यक्ति नियमों का पालन करता है उसे “मूर्ख” या “ढीला ढक्कन” समझा जाता है।
कोई भी दुर्घटना होते ही हम तुरंत पुलिस, सड़क या प्रशासन को दोष देने लग जाते हैं, सोशल मीडिया पर गुस्सा उतारते हैं, लेकिन शायद ही कोई यह सोचता है कि गलती किसकी थी। क्या वह व्यक्ति जिसने रांग साइड लिया, बिना हेलमेट चला, या अपने नाबालिग बेटे को बाइक थमा दी, उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं? अगर हम सच्चाई से देखें तो यही लापरवाहियाँ कई बार जानलेवा साबित होती हैं।
भोपाल जैसे शिक्षित और संवेदनशील शहर से उम्मीद है कि यहां के नागरिक सिर्फ सुविधाओं की नहीं, जिम्मेदारी की भी बात करेंगे। प्रशासन सड़कों को बेहतर बना सकता है, लेकिन सड़क पर अनुशासन सिर्फ नागरिक ही बना सकते हैं। असली सुधार तब होगा जब हम यह मान लें कि “लाल बत्ती पार करना चालाकी नहीं, अपराध है”, और “हेलमेट पहनना पुलिस से बचने का नहीं, खुद को बचाने का तरीका है।”
जरूरत इस बात की है कि ट्रैफिक अनुशासन को केवल दंड से नहीं, संस्कार से जोड़ा जाए।
- स्कूलों में सड़क सुरक्षा को नैतिक शिक्षा के रूप में पढ़ाया जाए।
- अभिभावक घर में अपने व्यवहार से उदाहरण दें।
- मीडिया इस पर नियमित जनजागरण करे।
- और समाज उन लोगों की सराहना करे जो नियमों का पालन करते हैं।
भोपाल में सड़क सुरक्षा सिर्फ ट्रैफिक पुलिस का विषय नहीं है, यह एक सामाजिक जिम्मेदारी है। पुलिस, प्रशासन और नागरिक — तीनों मिलकर ही इस व्यवस्था को सशक्त बना सकते हैं।
क्योंकि सड़कें सिर्फ सीमेंट या डामर से नहीं बनतीं, वे अनुशासन, समझदारी और परस्पर सम्मान से बनती हैं।
अगर हम सब मिलकर अपने व्यवहार में सुधार लाएँ, तो भोपाल की सड़कें न केवल सुंदर और स्मार्ट, बल्कि सचमुच सुरक्षित और अनुशासित भी बनेंगी।
याद रखिए : यातायात की असली व्यवस्था सड़कों पर नहीं, हमारे मन में बनती है। जब मन बदलेगा, तभी शहर बदलेगा।
लेखक यातायात सुरक्षा मित्र हैं
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